१५२] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं क बाह्यद्रव्य निमित्तमात्र है इसका ‘अभाव’ जीवके भाव की विशुद्धताका
निमित्त जान बाह्यद्रव्य का त्याग करते हैंः––
भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ।
बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स।। ३।।
भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रंथस्य क्रियते त्यागः।
बाह्यत्यागः विफलः अभ्यन्तरग्रंथयुक्तस्थ।। ३।।
अर्थः––बाह्य परिग्रह त्याग भावोंकी विशुद्धिके लिये किया जाता है, परन्तु अभ्यन्तर
परिग्रह जो रागागिक हैं, उनसे युक्त बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है।
भावार्थः––अन्तरंग भाव बिना बाह्य त्यागादिककी प्रवृत्ति निष्फल है, यह प्रसिद्ध है।।
३।।
आगे कहते हैं कि करोड़ों भवोंमें तप करे तो भी भाव बिना सिद्धि नहीं हैः––
भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ।
जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो।। ४।।
भावरहितः न सिद्धयति यद्यपि तपश्चरति कोटिकोटी।
जन्मान्तराणि बहुशः लंबितहस्तः गलितवस्त्रः।। ४।।
अर्थः––यदि कई जन्मान्तरों तक कोड़ाकोड़ि संख्या काल तक हाथ लम्बे लटकाकर,
वस्त्रादिकका त्याग करके तपश्चरण करे, तो भी भावरहित को सिद्धि नहीं होती है।
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रे! भावशुद्धिनिमित्त बाहिर–ग्रंथ त्याग कराय छे;
छे विफळ बाहिर–त्याग आंतर–ग्रंथथी संयुक्तने। ३।
छो कोटिकोटि भवो विषे निर्वस्त्र लंबितकर रही,
पुष्कळ करे तप, तोय भावविहीनने सिद्धि नहीं। ४।