भावपाहुड][१५३
भावार्थः––भाव में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप विभाव रहित सम्यग्दर्शन
– ज्ञान –चारित्ररूप स्वभाव में प्रवृत्ति न हो, तो कोड़ाकोड़ि भव तक कायोत्सर्गपूर्वक नग्नमुद्रा
धारणकर तपश्चरण करे तो भी मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती है, इसप्रकार भावोंमें सम्यग्दर्शन –
ज्ञान – चारित्ररूप भाव प्रधान है, और इनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है, क्योंकि इसके बिना
ज्ञान – चारित्र मिथ्या कहे हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। ४।।
आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हैंः––
परिणामम्मि अशुद्धे गंथे मुञ्चेइ बाहिरे य जई।
बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ।। ५।।
परिणामे अशुद्धे ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यदि।
बाह्यग्रन्थत्यागः भावविहीनस्य किं करोति।। ५।।
अर्थः––यदि मुनि बन कर परिणाम अशुद्ध होते हुए बाह्य परिग्रह को छोड़े तो बाह्य
परिग्रह का त्याग उस भावरहित मुनिको क्या करे? अर्थात् कुछ भी लाभ नहीं करता है।
भावार्थः––जो बाह्य परिग्रह को छोड़कर मुनि बन जावे और परिणाम परिग्रहरूप अशुद्ध
हों, अभ्यन्तर परिग्रह न छोडे़ तो बाह्य त्याग कुछ कल्याणरूप फल नहीं कर सकता।
सम्यग्दर्शनादि भाव बिना कर्मनिर्जरारूप कार्य नहीं होता हैं।। ५।।
पहली गाथा से इसमें यह विशेषता है कि यदि मुनिपद भी लेवे और परिणाम उज्जवल
न रहे, आत्मज्ञान की भावना न रहे, तो कर्म नहीं कटते हैं।
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परिणाम होय अशुद्ध ने जो बाह्य ग्रंथ परित्यजे,
तो शुं करे ए बाह्यनो परित्याग भावविहीनने? ५।