१५४] [अष्टपाहुड
आगे उपदेश करते हैं कि––भावको परमार्थ जानकर इसीको अंगीकार करोः– –
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण।
पंपिंय सिवपुरिपंथं जिणउवइट्ठं पयत्तेण।। ६।।
पंपिंय सिवपुरिपंथं जिणउवइट्ठं पयत्तेण।। ६।।
जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिंगेन भावरहितेन।
पथिक शिवपुरी पंथाः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन।। ६।।
पथिक शिवपुरी पंथाः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन।। ६।।
अर्थः––हे शिवपुरी के पथिक! प्रथम भावको जान, भाव रहित लिंगसे तुझे क्या
प्रयोजन है? शिवपुरीका पंथ जिनभगवंतोंने प्रयत्न साध्य कहा है।
भावार्थः––मोक्षमार्ग जिनवर देवने सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र आत्मभाव स्वरूप
परमार्थसे कहा है, इसलिये इसीको परमार्थ जानकर सर्व उद्यमसे अंगीकार करो, केवल
द्रव्यमात्र लिंग से क्या साध्य है? इसप्रकार उपदेश है।। ६।।
आगे कहते हैं कि द्रव्यलिंग आदि तुने बहुत धारण किये, परन्तु उससे कुछ भी सिद्धि
द्रव्यमात्र लिंग से क्या साध्य है? इसप्रकार उपदेश है।। ६।।
आगे कहते हैं कि द्रव्यलिंग आदि तुने बहुत धारण किये, परन्तु उससे कुछ भी सिद्धि
नहीं हुईः–––
भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे।
गहिउज्झियाइं वहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाइं।। ७।।
गहिउज्झियाइं वहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाइं।। ७।।
भावरहितेन सत्पुरुष! अनादिकालं अनंतसंसारे।
गृहीतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिर्ग्रंथ रूपाणि।। ७।।
गृहीतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिर्ग्रंथ रूपाणि।। ७।।
अर्थः––हे सत्पुरुष! अनादिकाल से लगाकर इस अनन्त संसार में तुने भावरहित
निर्गरन्थ रूप बहुत बार ग्रहण किये और छोडे़।
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छे भाव परथम, भावविरहित लिंगथी शुं कार्य छे?
हे पथिक! शिवनगरी तणो पथ यत्नप्राप्य कह्यो जिने। ६।
सत्पुरुष! काळ अनादिथी निःसीम आ संसारमां,
हे पथिक! शिवनगरी तणो पथ यत्नप्राप्य कह्यो जिने। ६।
सत्पुरुष! काळ अनादिथी निःसीम आ संसारमां,
बहु वार भाव विना बहिर्निंर्ग्रंथरूप ग्रह्यां–तज्यां। ७।