भावपाहुड][१५५
भावार्थः––भाव जो निश्चय सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र उनके बिना बाह्य निर्ग्रंथरूप द्रव्यलिंग संसार में अनन्तकालसे लगाकर बहुत बार धारण किये और छोडे़ तो भी कुछ सिद्धि न हुई। चारों गतियोंमें भ्रमण ही करता रहा।। ७।। वही कहते हैंः––
भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए।
पत्तो सि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीवः।। ८।।
पत्तो सि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीवः।। ८।।
भीषण नरक गतौ तिर्यग्गतौ कुदेव मनुष्य गत्योः।
प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावना जीवः।। ८।।
प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावना जीवः।। ८।।
अर्थः––हे जीव! तूने भीषण (भयंकर) नरकगति तथा तिर्यंचगतिमें और कुदेव,
कुमनुष्यगतिमें तीव्र दुःख पाये हैं, अतः अब तू जिनभावना अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना भा
इससे तेरे संसार का भ्रमण मिटेगा।
भावार्थः––आत्माकी भावना बिना चार गतिके दुःख अनादि कालसे संसारमें प्राप्त किये,
इससे तेरे संसार का भ्रमण मिटेगा।
भावार्थः––आत्माकी भावना बिना चार गतिके दुःख अनादि कालसे संसारमें प्राप्त किये,
इसलिये अब हे जीव! तू जिनेश्वर देव की शरण ले और शुद्ध स्वरूप का बारबार अभ्यास
कर, इससे संसारके भ्रमण से रहित मोक्षको प्राप्त करेगा, यह उपदेश है।। ८।।
आगे चार गतिके दुःखोंको विशेषरूप से कहते हैं, पहिले नरकगति के दुःखोंको कहते
कर, इससे संसारके भ्रमण से रहित मोक्षको प्राप्त करेगा, यह उपदेश है।। ८।।
आगे चार गतिके दुःखोंको विशेषरूप से कहते हैं, पहिले नरकगति के दुःखोंको कहते
हैंः––
सत्तसु णरयावासे दारुण भीमाइं असहणीयाइं।
भुत्ताई सुइरकालं दुःकरवाइं णिरंतरं सहियं।। ९।।
भुत्ताई सुइरकालं दुःकरवाइं णिरंतरं सहियं।। ९।।
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भीषण नरक, तिर्यंच तेम कुदेव–मानवजन्ममां,
तें जीव,! तीव्र दुःखो सह्यां; तुं भाव रे! जिनभावना। ८।
भीषण सुतीव्र असह्य दुःखो सप्त नरकावासमां
तें जीव,! तीव्र दुःखो सह्यां; तुं भाव रे! जिनभावना। ८।
भीषण सुतीव्र असह्य दुःखो सप्त नरकावासमां
बहु दीर्घ काळप्रमाण तें वेद्यां, अछिन्नपणे सह्यां। ९।