१५८] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे महाशय! तुने सुरनिलयेषु अर्थात् देवलोक में सुरप्सरा अर्थात् प्यारे देव तथा
प्यारी अप्सरा के वियोगकाल में उसके वियोग संबन्धी दुःख तथा इन्द्रादिक बडे़ ऋद्धिधारियोंको
देख कर अपने को हीन मानने के मानसिक तीव्र दुःखोंको शुभभावना से रहित होकर पाये हैं।
भावार्थः––यहाँ ‘महाशय’ इसप्रकार सम्बोधन किया। उसका आशय यह है कि जो
मुनि निर्गं्रथलिंग धारण करे और द्रव्यलिंगी मुनिकी समस्त क्रिया करे, परन्तु आत्मा के स्वरूप
शुद्धोपयोग के सन्मुख न हो उसको प्रधानतया उपदेश है कि मुनि हुआ वह तो बड़ा कार्य
किया, तेरा यश लोकमें प्रसिद्ध हुआ, परन्तु भली भावना अर्थात् शुद्धात्मतत्त्वका अभ्यास उसके
बिना तपश्चरणादि करके स्वर्गमें देव भी हुआ तो वहाँ भी विषयोंका लोभी होकर मानसिक
दुःखसे ही तप्तायमान हुआ।। १२।।
आगे शुभभावना से रहित अशुभ भावना का निरूपण करते हैंः––
कंदप्प माइयाओ पंच वि असुहादि भावणाई य।
भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ।। १३।।
कांदर्पीत्यादीः पंचापि अशुभादिभावनाः च।
भावयित्वा द्रव्यलिंगी प्रहीणदेवः दिवि जातः।। १३।।
अर्थः––हे जीव! तू द्रव्यलिंगी मुनि होकर कान्दर्पी आदि पाँच अशुभ भावना भाकर
प्रहीणदेव अर्थात् नीच देव होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ।
भावार्थः––कान्दर्पी, किल्विषिकी, संमोही, दानवी और अभियोगिकी–––ये पाँच अशुभ
भावना हैं। निर्ग्रंथ मुनि होकर समयक्त्व भावना बिना इन अशुभ भावनाओं को भावे तब
किल्विष आदि नीच देव होकर मानसिक दुःख को प्राप्त होता है।। १३।।
आगे द्रव्यलिंगी पार्श्वस्थ आदि होते हैं उनको कहते हैंः––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुं स्वर्गलोके हीन देव थयो, दरवलिंगीपणे,
कांदर्पी–आदिक पांच बूरी भावनाने भावीने। १३।