भाउण दुहं पत्तो कु भावणा भाव बीएहिं।। १४।।
भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावना भाव बीजैः।। १४।।
अर्थः––हे जीव! तू पार्श्वस्थ भावना से अनादिकालसे लेकर अनन्तबार भाकर दुःखको
प्राप्त हुआ। किससे दुःख पाया? कुभावना अर्थात् खोटी भावना, उसका भाव वे ही हुए दुःखके
बीज, उनसे दुःख पाया।
वेषधारी को ‘कुशील’ कहते हैं। जो वैद्यक ज्योतिषविद्या मंत्रकी आजिविका करे, राजादिकका
सेवक होवे इसप्रकार के वेषधारीको ‘संसक्त’ कहते हैं। जो जिनसूत्र से प्रतिकूल, चारित्र से
भ्रष्ट आलसी, इसप्रकार वेषधारी को ‘अवसन्न’ कहते हैं। गुरुका आश्रय छोड़कर एकाकी
स्वच्छन्द प्रवर्ते, जिन आज्ञाका लोप करे, ऐसे वेषधारीको ‘मृगचारी’ कहते हैं। इसकी भावना
भावे वह दुःख ही को प्राप्त होता है।। १४।।
होऊण हीणदेवो पत्तो बहु माणसं दुक्खं।। १५।।
भूत्वा हीनदेवः प्राप्तः बहु मानसं दुःखम्।। १५।।
अर्थः––हे जीव! तू हीन देव होकर अन्य महद्धिक देवोंके गुण, विभूति और ऋद्धि का
अनेक प्रकारका महात्म्य देखकर बहुत मानसिक दुःखोंको प्राप्त हुआ।
ते भावीने दुर्भावनाद्नक बीजथी दुःखो लह्यां। १४।
रे! हीन देव थई तुं पाम्यो तीव्र मानस दुःखने,