१६०] [अष्टपाहुड
भावार्थः––स्वर्गमें हीन देव होकर बड़े ऋद्धिधारी देवके अणिमादि गुणकी विभूति देखे
तथा देवांगना आदि का बहुत परिवार देखे और आज्ञा, ऐश्वर्य आदिका महात्म्य देखे तब मनमें
इसप्रकार विचारे कि मैं पुण्यरहित हूँ, ये बड़े पुण्यवान् हैं, इनके ऐसी विभूति महात्म्य ऋद्धि है,
इसप्रकार विचार करनेसे मानसिक दुःख होता है।। १५।।
आगे कहते हैं कि अशुभ भावनासे नीच देव होकर ऐसे दुःख पाते हैं, ऐसा कह कर
इस कथनका संकोच करते हैंः–––
चउविहविकहासत्तो मयमत्तो असुहभावपयडत्थो।
होऊण कुदेवत्तं पत्तो सि अणेयवाराओ।। १६।।
चतुर्विधविकथासक्तः मदमत्तः अशुभभावप्रकटार्थः।
भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तः असि अनेकवारान्।। १६।।
अर्थः––हे जीव! तू चार प्रकार की विकथा में आसक्त होकर, मद से मत्त और जिसके
अशुभ भावना का ही प्रकट प्रयोजन है इसप्रकार अनेकबार कुदेवपने को प्राप्त हुआ।
भावार्थः––स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा और राजकथा इन चार विकाथाओंमें
आसक्त होकर वहाँ परिणामको लगाया तथा जाति आदि आठ मदोंसे उन्मत्त हुआ, ऐसी अशुभ
भावना ही का प्रयोजन धारण कर अनेकबार नीच देवपनेको प्राप्त हुआ, वहाँ मानसिक दुःख
पाया।
यहाँ यह विशेष जानने योग्य है कि विकथादिकसे नीच देव भी नहीं होता है, परन्तु
यहाँ मुनिको उपदेश है, वह मुनिपद धारणकर कुछ तपश्चरणादिक भी करे और वेषमें
विकथादिकमें रक्त हो तब नीच देव होता है, इसप्रकार जानना चाहिये।। १६।।
आगे कहते हैं कि ऐसी कुदेवयोनि पाकर वहाँ से चय जो मनुष्य तिर्यंच होवे, वहाँ गर्भमें
आवे उसकी इसप्रकार व्यवस्था हैः––
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मदमत्त ने आसक्त चार प्रकारनी विकथा महीं,
बहुशः कुदेवपणुं लह्युं तें, अशुभ भावे परिणमी। १६।