वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीय मुणिवयर।। १७।।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर!।। १७।।
अर्थः––हे मुनिप्रवर! तू कुदेवयोनि से चयकर अनेक माताओं की गर्भ की वस्तीमें
बहुकाल रहा। कैसे है वह वस्ती? अशुचि अर्थात् अपवित्र है, वीभत्स
कहते हैं कि बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतबार धारणकर चार गतियोंमें ही भ्रमण किया, देव भी हुआ
तो वहाँ से चयकर इसप्रकारके मलिन गर्भवासमें आया, वहाँ भी बहुतबार रहा।। १७।।
अण्णाण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं।। १८।।
अन्यासामन्यासां महायश! सागरसलिलात् अधिकतरम्।। १८।।
अर्थः–– हे महाशय! उस पूर्वोक्त गर्भवास में अन्य–अन्य जन्ममें अन्य–अन्य माता के
स्तन दूध तूने समूद्रके जलसे भी अतिशयकर अधिक पिया है।
निकृष्टमळभरपूर, अशूचि, बीभत्स गर्भाशय विषे। १७।
जन्मो अनंत विषे अरे! जननी अनेरी अनेरीनुं