भावपाहुड][१६१
असुईबीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि।
वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीय मुणिवयर।। १७।।
वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीय मुणिवयर।। १७।।
अशुचिबीभत्सासु य कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर!।। १७।।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर!।। १७।।
अर्थः––हे मुनिप्रवर! तू कुदेवयोनि से चयकर अनेक माताओं की गर्भ की वस्तीमें
बहुकाल रहा। कैसे है वह वस्ती? अशुचि अर्थात् अपवित्र है, वीभत्स (घिनवानी) है और
उसमें कलिमल बहुत है अर्थात् पापरूप मलिन मल की अधिकता है।
भावार्थः––यहाँ ‘मुनिप्रवर’ ऐसा सम्बोधन है सो प्रधानरूप से मुनियोंको उपदेश है। जो
भावार्थः––यहाँ ‘मुनिप्रवर’ ऐसा सम्बोधन है सो प्रधानरूप से मुनियोंको उपदेश है। जो
मुनिपद लेकर मनियोंमें प्रधान कहलावें और शुद्धात्मरूप निश्चयचारित्रके सन्मुख न हो, उसको
कहते हैं कि बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतबार धारणकर चार गतियोंमें ही भ्रमण किया, देव भी हुआ
तो वहाँ से चयकर इसप्रकारके मलिन गर्भवासमें आया, वहाँ भी बहुतबार रहा।। १७।।
आगे फिर कहते हैं कि इसप्रकारके गर्भवास से निकलकर जन्म लेकर माताओं का दूध
कहते हैं कि बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतबार धारणकर चार गतियोंमें ही भ्रमण किया, देव भी हुआ
तो वहाँ से चयकर इसप्रकारके मलिन गर्भवासमें आया, वहाँ भी बहुतबार रहा।। १७।।
आगे फिर कहते हैं कि इसप्रकारके गर्भवास से निकलकर जन्म लेकर माताओं का दूध
पियाः––
पीओ सि थणच्छीरं अणंतजम्मंतराइ जणणीणं।
अण्णाण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं।। १८।।
अण्णाण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं।। १८।।
पीप्तोऽसि स्तनक्षीरं अनंतजन्मांतराणि जननीनाम्।
अन्यासामन्यासां महायश! सागरसलिलात् अधिकतरम्।। १८।।
अन्यासामन्यासां महायश! सागरसलिलात् अधिकतरम्।। १८।।
अर्थः–– हे महाशय! उस पूर्वोक्त गर्भवास में अन्य–अन्य जन्ममें अन्य–अन्य माता के
स्तन दूध तूने समूद्रके जलसे भी अतिशयकर अधिक पिया है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
हे मुनिप्रवर! तुं चिर वस्यो बहु जननीना गर्भोपणे,
निकृष्टमळभरपूर, अशूचि, बीभत्स गर्भाशय विषे। १७।
जन्मो अनंत विषे अरे! जननी अनेरी अनेरीनुं
निकृष्टमळभरपूर, अशूचि, बीभत्स गर्भाशय विषे। १७।
जन्मो अनंत विषे अरे! जननी अनेरी अनेरीनुं
स्तनदूध तें पीधुं महायश! उदधिजळथी अति घणुं। १८।