१६६] [अष्टपाहुड अर्थः––विषभक्षणसे, वेदना की पीड़ा के निमित्तसे, रक्त अर्थात् रुधिरके क्षय से, भयसे, शस्त्रके घात से, संक्लेश परिणामसे, आहार तथा श्वासके निरोधसे इन कारणोंसे आयुका क्षय होता है। हिम अर्थात् शीत पालेसे, अग्निसे, जलसे, बड़े पर्वत पर चढ़कर पड़नेसे, बडे़ वृक्ष पर चढ़कर गिरनेसे, शरीरका भंग होनेसे, रस अर्थात् पारा आदिकी विद्या उसके संयोग से धारण करके भक्षण करे इससे, और अन्याय कार्य, चोरी, व्यभिचार आदिके निमित्तसे –––इसप्रकार अनेकप्रकारके कारणोंसे आयुका व्युच्छेद (नाश) होकर कुमरण होता है। इसलिये कहते हैं कि हे मित्र! इसप्रकार तिर्यंच मनुष्य जन्ममें बहुतकाल बहुतबार उत्पन्न होकर अपमृत्यु अर्थात् कुमरण सम्बन्धी तीव्र महादुःखको प्राप्त हुआ। भावार्थः––इस लोकमें प्राणीकी आयु (जहाँ सोपक्रम आयु बंधी है उसी नियम के अनुसार) तिर्यंच–मनुष्य पर्यायमें अनेक कारणोंसे छिदती है, इससे कुमरण होता है। इससे मरते समय तीव्र दुःख होता है तथा खोटे परिणामोंसे मरण कर फिर दुर्गतिही में पड़ता है; इसप्रकार यह जीव संसार में महादुःख पाता है। इसलिये आचार्य दयालु होकर बारबार दिखाते हैं और संसारसे मुक्त होनेका उपदेश करते हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। २५–२६–२७।। आगे निगोद के दुःख को कहते हैंः–––
अतोमुहुत्तममज्झे पत्तो सि निगोयवासम्मि।। २८।।
अन्तर्मुहूर्त्तमध्ये प्राप्तोऽसि निकोतवासे।। २८।।
अर्थः––हे आत्मन! तू निगोद के वास में एक अंतर्मुहूर्त्त में छियासठ हजार तीनसौ