Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 29 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][१६७
भावार्थः––निगोद में एक श्वास में अठारहवें भाग प्रमाण आयु पाता है। वहाँ एक
मुहूर्त्तके सैंतीससौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास गिनते हैं। उनमें छत्तीससौ पिच्यासी श्वासोच्छ्वास
और एक श्वासके तीसरे भागके छ्यासठ हजार तीनसौ छत्तीस बार निगोद में जन्म–मरण
होता है। इसका दुःख यह प्राणी सम्यग्दर्शनभाव पाये बिना मिथ्यात्वके उदयके वशीभूत होकर
सहता है। भावार्थः––अंतर्मुहूर्त्तमें छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म–मरण कहा, वह
अठ्यासी श्वास कम मुहूर्त्त इसप्रकार अंतर्मुहूर्त्त जानना चाहिये।। २८।।

[विशेषार्थः–––गाथामें आये हुए ‘निगोद वासम्मि’ शब्द की संस्कृत छाया में ‘निगोत
वासे’ है। निगोद एकेन्द्रिय वनस्पति कायिक जीवोंके साधारण भेदमें रूढ़ है, जब कि निगोत
शब्द पांचों इन्द्रियोंके सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके लिये प्रयुक्त
होता है। अतः यहाँ जो ६६३३६ बार मरण की संख्या है वह पांचों इन्द्रियों को सम्मिलित
समझाना चाहिये।। २८।।]

इसही अंतर्मुहूर्त्तके जन्म–मरण में क्षुद्रभवका विशेष कहते हैंः–––
वियलिंदए असीदी सट्ठी चालीसमेव जाणेह।
पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवंतोमुहुत्तस्स।। २९।।
विकलेंद्रियाणामशीति पष्टिं चत्वारिंशतमेव जानीहि।
पंचेन्द्रियाणां चतुर्विंशति क्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्त्तस्य।। २९।।

अर्थः
––इस अंतर्मुहूर्त्तके भवोंमें दो इन्दियके क्षुद्रभव अस्सी, तेइन्द्रियके साठ, चौइन्द्रिय
के चालीस और पंचेन्द्रियके चौबीस, इसप्रकार हे आत्मन्! तू क्षुद्रभव जान।

भावार्थः––क्षुद्रभव अन्य शास्त्रों में इसप्रकार गने हैं। पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और
साधारण निगोदके सूक्ष्म बादर से दस और सप्रतिष्ठित वनस्पति एक, इसप्रकार ग्यारह
स्थानोंके भव तो एक––एकके छह हजार बार उसके छ्यासठ हजार एकसौ बत्तीस हुए और
इस गाथा में कहे वे भव दो इन्द्रिय आदिके दो सौ वार, ऐसे ६६३३६ एक अंतर्मुहूर्त्तमें क्षुद्रभव
हैं।। २९।।
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रे! त्रण एंशी साठ चालीश क्षुद्र भव विकलेंद्रिना,
अंतर्मुहूर्ते क्षुद्रभव चोवीश पंचेन्द्रिय तणा। २९।