१६८] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि हे आत्मन्! तूने इस दीर्घसंसार में पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयकी प्राप्ति बिना भ्रमण किया, इसलिये अब रत्नत्रय धारण करः––
रयणत्तये अलद्धे एवं भमिओ सि दीहसंसारे।
इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तय समायरह।। ३०।।
इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तय समायरह।। ३०।।
रत्नत्रये अलब्धे एवं भ्रमितोऽसि दीर्घसंसारे।
इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर।। ३०।।
इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर।। ३०।।
अर्थः––हे जीव! तूने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय को नहीं पाया, इसलिये इस
दीर्घकालसे – अनादि संसारमें पहिले कहे अनुसार भ्रमण किया, इसप्रकार जानकर अब तू
उस रत्नत्रयका आचरण कर, इसप्रकार जिनेश्वरदेव ने कहा है।
भावार्थः––निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मिथ्यात्वके उदयसे संसार में भ्रमण
करता है, इसलिये रत्नत्रय के आचरणका उपदेश है।। ३०।।
आगे शिष्य पूछता है कि वह रत्नत्रय कैसा है? उसका समाधान करते हैं कि रत्नत्रय
आगे शिष्य पूछता है कि वह रत्नत्रय कैसा है? उसका समाधान करते हैं कि रत्नत्रय
इसप्रकार हैः––
अप्पा अप्पम्मि रओ सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्त मग्गो त्ति।। ३१।।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्त मग्गो त्ति।। ३१।।
आत्मा आत्मनि रतः सम्यग्द्रष्टिः भवति स्फुटं जीवः।
जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति।। ३१।।
जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति।। ३१।।
अर्थः––जो आत्मा आत्मा में रत होकर यथार्थरूपका अनुभव कर तद्रुप होकर श्रद्धान
करे वह प्रगट सम्यग्दृष्टि होता है, उस आत्माको जानना सम्यग्ज्ञान है,
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वण रत्नत्रयप्राप्ति तुं ए रीत दीर्घसंसारे भम्यो,
भाख्युं जिनोए आम; तेथी रत्नत्रयने आचरो। ३०।
निज आद्नमां रत क्वव जे ते प्रगट सम्यग्द्रष्टि छे,
भाख्युं जिनोए आम; तेथी रत्नत्रयने आचरो। ३०।
निज आद्नमां रत क्वव जे ते प्रगट सम्यग्द्रष्टि छे,
तद्बोध छे सुज्ञान, त्यां चरवुं चरण छे; –मार्ग ए। ३१।