१७२] [अष्टपाहुड
इसप्रकार सत्रह प्रकार कहे। इनका संक्षेप इसप्रकार है–––मरण पाँच प्रकार के हैं––१ पंडितपंडित, २ पंडित, ३ बालपंडित, ४ बाल, ५ बालबाल। जो दर्शन ज्ञान चारित्र के अतिशय सहित हो वह पंडितपंडित है और इनकी प्रकर्षता जिनके न हो वह पंडित है, सम्यग्दृष्टि श्रावक वह बालपंडित और पहिले चार प्रकारके पंडित कहे उनमेह से एक भी भाव जिसके नहीं है वह बाल है तथा जो सबसे न्यून हो वह बालबाल है। इनमें पंडितपंडितमरण, पंडितमरण और बालपंडितमरण ये तीन प्रशस्त सुमरण कहे हैं, अन्य रीति होवे वह कुमरण है। इसप्रकार जो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र एकदेश सहित मरे वह ‘सुमरण’ है; इसप्रकार सुमरण करने का उपदेश है।। ३२।। आगे यह जीव संसारमें भ्रमण करता है, उस भ्रमणके परावर्तन का स्वरूप मनमें धारणकर निरूपण करते हैं। प्रथम ही सामान्यरूप लोकके प्रदेशों की अपेक्षासे कहते हैंः–––
जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सव्वो।। ३३।।
यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः।। ३३।।
अर्थः––यह जीव द्रव्यलिंग का धारक मुनिपना होते हुए भी जो तीनलोक प्रमाण सर्व
मरण न किया हो।
भावार्थः––द्रव्यलिंग धारण करके भी इस जीवने सर्व लोकमें अनन्तबार जन्म और मरण
भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग से मोक्ष की (––निजपरमात्मदशा की) प्राप्ति नहीं हुई––ऐसा
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिये भावलिंग को प्रधान कर कहते हैंः–––