Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 35-36 (Bhav Pahud).

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१७४] [अष्टपाहुड
आगे पुद्गल द्रव्य को प्रधान कर भ्रमण कहते हैंः––
पडिदेससमयपुग्गल आउग परिणामणामकालट्ठं।
गहिउज्झियाइं बहुसो अणंतभवसायरे
जीव।। ३५।।
प्रतिदेशसमयपुद्गलायुः परिणामनामकालस्थम्।
गृहीतोज्झितानि बहुशः अनन्तभवसागरे जीवः।। ३५।।

अर्थः
––इस जीवने इस अनन्त अपार भवसमुद्रमें लोककाशके जितने प्रदेश हैं उन प्रति
समय समय और पर्याय के आयुप्रमाण काल और जैसा योगकषाय के परिणमनस्वरूप परिणाम
और जैसा गति जाति आदि नाम कर्मके उदयसे हुआ नाम और काल जैसा उत्सर्पिणी–
अवसर्पिणी उनमें पुद्गलके परमाणुरूप स्कन्ध, उनको बहुतबार अनन्तबार ग्रहण किये और
छोडे़।

भावार्थः––भावलिंग बिना लोकमें जितने पुद्गल स्कन्ध हैं उन सबको ही ग्रहण किये
और छोड़े तो भी मुक्त न हुआ।। ३५।।

आगे क्षेत्रको प्रधान कर कहते हैंः–––
तेयाला तिण्णि सया रज्जूणं लोयखेत्त परिमाणं।
मुत्तूणट्ठ पएसा जत्थण ढुरुढुल्लिओ जीयो।। ३६।।
त्रिचत्त्वारिंशत् त्रीणि शतानि रज्जूनां लोकक्षेत्र परिमाणं।
मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः।। ३६।।

अर्थः
–यह लोक तीनसौ तेतालीस राजू प्रमाण क्षेत्र है, उसके बीच मेरूके नीचे
गोस्तनाकार आठ प्रदेश हैं, उनको छोड़कर अन्य प्रदेश ऐसा न रहा जिसमें यह जीव नहीं
जन्मा – मरा हो।
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१ पाठान्तरः – जीवो।
प्रतिदेश–पुद्गल–काळ–आयुष–नाम–परिणामस्थ तें
बहुशः शरीर ग्रह्यां–तज्यां निःसीम भवसागर विषे। ३५।

त्रणशत–अधिक चाळीश–त्रण रज्जुप्रमित आ लोकमां
तजी आठ कोई प्रदेश ना, परिभ्रमित नहि आ जीव ज्यां। ३६।