भावपाहुड][१७५
भावार्थः––‘ढुरुढुल्लिओ’ इसप्रकार प्राकृत में भ्रमण अर्थके धातुका आदेश है और क्षेत्रपरावर्तन में मेरूके नीचे आठ लोकके मध्यमें हैं उनको जीव अपने शरीरके अष्टमध्य प्रदेश बना कर मध्यदेश उपजता है, वहाँ से क्षेत्रपरावर्तन का प्रारंभ किया जाता है, इसलिये उनको पुनरुक्त भ्रमण में नहीं गिनते हैं।। ३६।। [देखो गो० जी० काण्ड गाथा ५६० पृ० २६६ मूलाचार अ० ९ गाथा १४ पृ० ४२८] आगे यह जीव शरीर सहित उत्पन्न होता है और मरता है, उस शरीरमें रोग होते हैं, उनकी संख्या दिखाते हैंः–––
एक्केक्कंगुलि बाही छण्णवदी होंति जाण मणुयाणं।
अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिया।। ३७।।
अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिया।। ३७।।
एकैकांगुलौ व्याधयः षण्णयतिः भवंति जानीहि मनुष्यानां।
अवशेषे च शरीरे रोगाः भण कियन्तः भणिताः।। ३७।।
अवशेषे च शरीरे रोगाः भण कियन्तः भणिताः।। ३७।।
अर्थः––इस मनुष्य के शरीर में एक एक अंगुलमें छ्यानवे छ्यानवे रोग होते हैं, तब
कहो, अवशेष समस्त शरीर में कितने रोग कहें।। ३७।।
आगे कहते हैं कि जीव! उन रोगोंका दुःख तूने सहाः–––
ते रोया वि य सयला सह्यिा ते परवसेण पुव्वभवे।
एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं।। ३८।।
एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं।। ३८।।
ते रोगा अपि च सकलाः सढास्त्वया परवशेण पूर्वभवे।
एवं सहसे महायशः। किं वा बहुभिः लपितैः।। ३८।।
एवं सहसे महायशः। किं वा बहुभिः लपितैः।। ३८।।
अर्थः––हे महाशय! हे मुने! तूने पूर्वोक्त रोगोंको पूर्वभवोंमें तो परवश सहे, इसप्रकार
ही फिर सहेगा, बहुत कहने से क्या?
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प्रत्येक अंगुल छन्नुं जाणो रोग मानव देहमां;
तो केटला रोगो, कहो, आ अखिल देह विषे, भला! ३७।
ए रोग पण सघळा सह्या तें पूर्वभवमां परवशे;
तो केटला रोगो, कहो, आ अखिल देह विषे, भला! ३७।
ए रोग पण सघळा सह्या तें पूर्वभवमां परवशे;
तुं सही रह्यो छे आम, यशधर; अधिक शुं कहीए तने? ३८।