१७६] [अष्टपाहुड
भावार्थः––यह जीव पराधीन होकर सब दुःख सहता है। यदि ज्ञानभावना करे और दुःख आने पर उससे चलायमान न हो, इस तरह स्ववश होकर सहे तो कर्मका नाश कर मुक्त हो जावे, इसप्रकार जानना चाहिये।। ३८।। आगे कहते हैं कि अपवित्र गर्भवास में भी रहाः––
पित्तंतमुत्तफेफसकालिज्जयरुहिरखरिसकिमिजाले।
उयरे वसिओ सि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं।। ३९।।
उयरे वसिओ सि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं।। ३९।।
पित्तांत्रमूत्रफेफसयकृद्रुधिरखरिसकृमिजाले।
उदरे उषितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तेः।। ३९।।
उदरे उषितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तेः।। ३९।।
अर्थः––हे मुने! तूने इसप्रकार के मलिन अपवित्र उदर में नव मास तथा दस मास
प्राप्त कर रहा। कैसा है उदर? जिसमें पित्त और आंतोंसे वेष्टित, मूत्रका स्रवण, फेफस अर्थात्
जो रुधिर बिना मेद फूल जावे, कालिज्ज अर्थात् कलेजा, खून, खरिस अर्थात् अपक्व मलसे
मिला हुआ रुधिर श्लेष्म और कृमिजाल अर्थात् लट आदि जीवोंके समूह ये सब पाये जाते हैं–
––इसप्रकार स्त्री के उदर में बहुत बार रहा।। ३९।।
फिर इसी को कहते हैः–––
दियसंगट्ठियमसणं आहारिय मायभुत्त मण्णांते।
छद्दिखरिसाण मज्झे जढरे वसिओ सि जणणीए।। ४०।।
छद्दिखरिसाण मज्झे जढरे वसिओ सि जणणीए।। ४०।।
द्विजसंगस्थितमशनं आहृत्य मातृभुक्तमन्नान्ते।
छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः।। ४०।।
छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः।। ४०।।
अर्थः––हे जीव! तू जननी (माता) के उदर (गर्भ) में रहा, वहाँ माताके और पिताके
भोगके अन्त, छर्दि (वमन) का अन्न, खरिस (रुधिरसे मिला हुआ अपक्व मल
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मळ–मूत्र–शोणित–पित्त–करम, बरोळ, यकृत, आंत्र ज्यां,
त्यां मास नव–दश तुं वस्यो बहु वार जननी–उदरमां ३९।
जननी तणुं चावेल ने खाधेल एठुं खाईने,
त्यां मास नव–दश तुं वस्यो बहु वार जननी–उदरमां ३९।
जननी तणुं चावेल ने खाधेल एठुं खाईने,
तुं जननी केरा जठरमां वमनादिमध्य वस्यो अरे! ४०।