१७८] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे मुने! तू देहरूप घटको इसप्रकार विचार, कैसा है देह घट? मास, हाड,
शुक्र (वीर्य), श्रोणित (रुधिर), पित्त (उष्ण विकार) और (आँतड़ियाँ) आदि द्वारा तत्काल
मृतककी तरह दुर्गंध है तथा खरिस (रुधिरसे मिला अपक्वमल), वसा (मेद), पूय (खराब
खून) और राध, इन सब मलिन वस्तुओं से पूरा भरा है, इसप्रकार देहरूप घट का विचार
करो।
भावार्थः––यह जीव तो पवित्र है, शुद्धज्ञानमयी है और यह देह इसप्रकार है, इसमें
रहना अयोग्य है–––ऐसा बताया है।। ४२।।
आगे कहते हैं कि जो कुटुम्ब से छूटा वह नहीं छूटा, भाव से छूटे हुएको ही छूटा कहते
हैंः–––
भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण।
इय भाविऊण उज्झसु गंधं अब्भंतरं धीर।। ४३।।
भावविमुक्तः मुक्तः न च मुक्तः बांधवादिमित्रेण।
इति भावयित्या उज्झय ग्रन्थमाभ्यंन्तरं धीर!।। ४३।।
अर्थः––जो मुनि भावों से मुक्त हुआ उसी को मुक्त कहते हैं और बांधव आदि कुटुम्ब
तथा मित्र आदि से मुक्त हुआ उसको मुक्त नहीं कहते हैं, इसलिये हे धीर मुनि! तू इसप्रकार
जानकर अभ्यन्तर की वासना को छोड़।
भावार्थः––जो बाह्य बांधव, कुटुम्ब तथा मित्र इनको छोड़कर निर्गं्रथ हुआ और अभ्यंतर
की ममत्वभावरूप वासना तथा इष्ट अनिष्ट में रागद्वेष वासना न छूटी तो उसको निर्ग्रंथ नहीं
कहते हैं। अभ्यन्तर वासना छूटने पर निर्ग्रंथ होता है, इसलिये यह उपदेश है कि अभ्यन्तर
मिथ्यात्व कषाय छोड़कर भावमुनि बनना चाहिये।। ४३।।
आगे कहते हैं कि जो पहिले मुनि हुए उन्होंने भावशुद्धि बिना सिद्धि नहीं पाई है।
उनका उदाहरणमात्र नाम कहते हैं। प्रथम ही बाहुबली का उदाहरण कहते हैंः–––
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रे! भावमुक्त विमुक्त छे, स्वजनादिमुक्त न मुक्त छे,
ईम भावीने हे धीर! तुं परित्याग आंतरग्रंथने। ४३।