Ashtprabhrut (Hindi).

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१८०] [अष्टपाहुड
मधुपिंगो नाम मुनिः देहाहारादित्यक्तव्यापारः।
श्रमणत्वं न प्राप्तः निदानमात्रेण भव्यनुत!।। ४५।।

अर्थः
––मधुपिंगल नाम का मुनि कैसा हुआ? देह आहारादि में व्यापार छोड़कर भी
निदानमात्रसे भावश्रमणपने को प्राप्त नहीं हुआ, उसको भव्य जीवोंसे नमने योग्य मुनि, तू देख।

भावार्थः––मधुपिंगल नामके मुनिकी कथा पुराण में है उसका संक्षेप ऐसे है–––इस
भरतक्षेत्रके सुरम्यदेशमें पोदानापुरका राजा तृणपिंगलका पुत्र मधुपिंगल था। वह
चारणयुगलनगर के राजा सुयोधनकी पुत्री सुलसाके स्वयंवरमें आया था। वहीं साकेतपुरी का
राजा सगर आया था। सगर के मंत्री ने मधुपिंगलको कपटसे नया सामुद्रिक शास्त्र बनाकर
दोषी बताया कि इसके नेत्र पिंगल हैं
(माँजरा हैं) जो कन्या इसको वरे वह मरण को प्राप्त
हो। तब कन्याने सगरके गले में वरमाला पहिना दी। मधुपिंगलका वरण नहीं किया, तब
मधुपिंगलने विरक्त होकर दीक्षा ले ली।

फिर कारण पाकर सगरके मंत्रीके कपटको जानकर क्रोधसे निदान किया कि मेरे तपका
फल यह हो–––‘अगले जन्म में सगरके कुलको निर्मूल करूँ,’ उसके पीछे मुनिपिंगल मरकर
महाकालासुर नामका असुरदेव हुआ, तब सगरको मंत्री सहित मारने का उपाय सोचने लगा।
इसको क्षीरकदम्ब ब्राह्मणका पुत्र पापी पर्वत मिला, तब उसको पशुओं की हिंसारूप यज्ञका
सहायक बन ऐसा कहा। सगर राजा को यज्ञ का उपदेश करके यज्ञ कराया, तेरे यज्ञ में
सहायक बनूँगा। तब पर्वत ने सगर से यज्ञ कराया–––पशु होमे। उस पापसे सगर सातवें
नरक गया और कालासुर सहायक बना सो यज्ञ करनेवालों को स्वर्ग जाते दिखाये। ऐसे
मधुपिंगल नामक मुनिने निदानसे महाकालासुर बनकर महापाप कमाया, इसलिये आचार्य कहते
हैं कि मुनि बन जाने पर भी भाव बिगड़ जावें तो सिद्धिको नहीं पाता है। इसकी कथा
पुराणोंसे विस्तारसे जानो।। ४५।।
आगे विशिष्ठ मुनिका उदाहरण कहते हैंः––––