जिणलिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवे णरए।। ४९।।
जिनलिंगेनापि बाहुः पतितः सः रौरवे नरके।। ४९।।
अर्थः––देखो, बाहु नामक मुनि बाह्य जिनलिंग सहित था तो भी अभ्यन्तर के दोषसे
समस्त दंडक नामक नगर को दग्ध कर किया और सप्तम पृथ्वीके रौरव नामक बिल में गिरा।
भावसहित धारण करना श्रेष्ठ है और केवल द्रव्यलिंग तो उपद्रव का कारण होता है। इसका
उदाहरण बाहु मुनि का बताया। उसकी कथा ऐसे है––––
बालक नामके मंत्री को वादमें जीत लिया, तब मंत्रीने क्रोध करके एक भाँडको मुनिका रूप
कराकर राजाकी रानी सुव्रताके साथ क्रीड़ा करते हुए राजा को दिखा दिया और कहा कि
देखो! राजाके ऐसी भक्ति है जो अपनी स्त्री भी दिगम्बरको क्रीड़ा करनेके लिये दे दी है। तब
राजाने दिगम्बरों पर क्रोध करके पाँचसौ मुनियोंको घानी में पिलवाया। वे मुनि उपसर्ग सहकर
परमसमाधिसे सिद्धि को प्राप्त हुए।
दिया है, वह आपका भी वही हाल करेगा। तब लोगोंके वचनों से बाहु मुनिको क्रोध उत्पन्न
हुआ, अशुभ तैजससमुद्घातसे राजाको मंत्री सहित और सब नगर को भस्म कर दिया। राजा
और मंत्री सातवें नरक रौरव नामक बिलमें गिरे, वह बाहु मुनि भी मरकर रौरव बिल में गिरे।
इसप्रकार द्रव्यलिंग में भावके दोष से उपद्रव होते हैं, इसलिये भावलिंग का प्रधान उपदेश है।।
४९।।