Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 50 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][१८५
आगे इस ही अर्थपर दीपायन मुनिका उदाहरण कहते हैंः–––
अवरो वि दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपठभट्ठो।
दीवावणो त्ति णामो अणंतसंसारिओ जाओ।। ५०।।
अपरः अपि द्रव्यश्रमणः दर्शनवरज्ञान चरणप्रभ्रष्टः।
दीपायन इति नाम अनन्तसांसारिकः जातः।। ५०।।

अर्थः––
आचार्य कहते हैं कि जैसे पहिले बाहु मुनि कहा वैसे ही और भी दीपायन नामका
द्रव्यश्रमण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र से भ्रष्ट होकर अनन्तसंसारी हुआ है।

भावार्थः––पहिले की तरह इसकी कथा संक्षेपसे इसप्रकार है–––नौंवें बलभद्र ने
श्रीनेमीनाथ तीर्थंकर से पूछा कि हे स्वामिन्! यह द्वारकापुरी समुद्र में है इसकी स्थिति कितने
समय तक है? तब भगवान ने कहा कि रोहिणी का भाई दीपायन तेरा मामा बारह वर्ष पीछे
मद्य के निमित्त से क्रोध करके इस पुरीको दग्ध करगा। इसप्रकार भगवानके वचन सुन
निश्चयकर दीपायन दीक्षा लेकर पूर्वदेशमें चला गया। बारह वर्ष व्यतीत करनेके लिये तप
करना शुरु किया और बलभद्र नारायण ने द्वारिका में मद्य निषेध की घोषणा करा दी। मद्यके
बरतन तथा उसकी सामग्री मद्य बनाने वालोंने बाहर पर्वतादि में फेंक दी। तब बरतनोंकी
मदिरा तथा मद्य की सामग्री जलके गर्तोंमें फैल गई।

फिर बारह वर्ष बीते जानकर दीपायन द्वारिका आकर नगर के बाहर आतापनयोग
धारणकर स्थित हुए। भगवानके वचन की प्रतीति न रखी। पीछे शंभवकुमारादि क्रीड़ा करते हुए
प्यासे होकर कुंडोंमें जल जानकर पी गये। इस मद्यके निमित्तसे कुमार उन्मत्त हो गये। वहाँ
दीपायन मुनिको खड़ा देखकर कहने लगे–––‘यह द्वारिका को भस्म करने वाला दीपायन है;’
इसप्रकार कहकर उसको पाषाणादिक से मारने लगे। तब दीपायन भूमिपर गिर पड़ा, उसको
क्रोध उत्पन्न हो गया, उसके निमित्त से द्वारिका जलकर भस्म हो गई। इसप्रकार भावशुद्धि के
बिना अनन्तसंसारी हुआ।। ५०।।
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वळी ए रीते बीजा दरवसाधु द्वीपायन नामना
वरज्ञानदर्शनचरणभ्रष्ट, अनंत संसारी थया। ५०।