१८८] [अष्टपाहुड
तुषमांष घोषयन् भावविशुद्धः महानुभावश्च।
नाम्ना च शिवभूतिः केवलज्ञानी स्फुटं जातः।। ५३।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि शिवभूति मुनिने शास्त्र नहीं पढ़े थे, परन्तु तुष माष ऐसे
शब्दको रटते हुए भावोंकी विशुद्धतासे महानुभव होकर केवलज्ञान पाया, यह प्रकट है।
भावार्थः––कोई जानेगा कि शास्त्र पढ़नेसे ही सिद्धि है तो इसप्रकार भी नहीं है।
शिवभूति मुनिने तुष माष ऐसा शब्दमात्र रटनेसे ही भावोंकी विशुद्धता से केवल७ान पाया।
इसकी इसप्रकार है–––कोई शिवभूति नामक मुनि था। उसने गुरुके पास शास्त्र पढ़े परन्तु
धारणा नहीं हुई। तब गुरु ने यह शब्द पढ़ाया कि ’मा रुष मा तुष’ सो इस शब्द को घोखने
लगा। इसका अर्थ यह है कि रोष मत करे, तोष मत करे अर्थात् रागद्वेष मत करे, इससे सर्व
सिद्ध है।
फिर यह भी शुद्ध याद न रहा तब ‘तुषमाष’ ऐसा पाठ घोखने लगा, दोनों पदोंके
‘रुकार और– १तुकार’ भूल गये और ‘तुषमाष’ इसप्रकार याद रह गया। उसको घोखते हुए
विचारने लगे। तब कोई एक स्त्री उड़द की दाल धो रही थी, उसको किसीने पूछा तू क्या
कर रही है? उसने कहा–––तुष और माष भिन्न भिन्न कर रही हूँ। तब यह सुन कर मुनिने
‘तुषमाष’ शब्द का भावार्थ यह जाना कि यह शरीर तो तुष और यह आत्मा माष है, दोनों
भिन्न भिन्न हैं। इसप्रकार भाव जानकर आत्मा का अनुभव करने लगा। चिन्मात्र शुद्ध आत्माको
जानकर उसमें लनि हुआ, तब घाति कर्मका नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया। इसप्रकार
भावोंकी विशुद्धता से सिद्धि हुई जानकर भाव शुद्ध करना, यह उपदेश है।। ५३।।
आगे इसी अर्थको सामान्यरूप से कहते हैंः–––
भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण।
कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण।। ५४।।
भावेन भवति नग्नः बहिर्लिंगेन किं च नग्नेन।
कर्मप्रकृतीनां निकरं नाशयति भावेन द्रव्येण।। ५४।।
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१ ––माकर, ऐसा पाठ सुसंगत है।
नग्नत्व तो छे भावथी; शुं नग्न बाहिर–लिंगथी?
रे! नाश कर्मसमूह केरो होय भावथी द्रव्यथी। ५४।