भावपाहुड][१८९
अर्थः––भावसे नग्न होता है, बाह्य नग्नलिंगसे क्या कार्य होता है? अर्थात् नहीं होता
है, क्योंकि भावसहित द्रव्यलिंग से कर्मप्रवृत्तिके समूह का नाश होता है।
भावार्थः––आत्मा के कर्म प्रवृत्तिके नाश से निर्जरा तथा मोक्ष होना कार्य है। यह कार्य
द्रव्यलिंग से नहीं होता। भावसहित द्रव्यलिंग होनेपर कर्म निर्जरा नामक कार्य होता है। केवल
द्रव्यलिंगसे तो नहीं होता, इसलिये भावलिंग द्रव्यलिंग धारण करनेका यह उपदेश है।। ५४।।
आगे इसी अर्थको दृढ़ करेत हैंः–––
णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं।
इय णाऊण य णिय्यं भाविज्जहि अप्पयं धीर।। ५५।।
नग्नत्वं अकार्यं भावरहितं जिनैः प्रज्ञप्तम्।
इति ज्ञात्वा नित्यं भावयेः आत्मानं धीर!।। ५५।।
अर्थः––भावरहित नग्नत्व अकार्य हे, कुछ कार्यकारी नहीं है। ऐसा जिन भगवान ने
कहा है। इसप्रकार जानकर है धीर! धैर्यवान मुने! निरन्तर नित्य आत्मा की ही भावना कर।
भावार्थः––आत्माकी भावना बिना केवल नग्नत्व कुछ कार्य करने वाला नहीं है, इसलिये
चिदानन्दस्वरूप आत्मा की ही भावना निरन्तर करना, आत्मा की भावना सहित नग्नत्व सफल
होता है।। ५५।।
आगे शिष्य पूछता है कि भावलिंगको प्रधान कर निरूपण किया वह भावलिंग कैसा है?
इसका समाधान करने के लिये भावलिंगका निरूपण करते हैंः–––
देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो।
अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू।। ५६।।
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नग्नत्व भावविहीन भाख्युं अकार्य देव जिनेश्वरे,
–ईम जाणीने हे धीर! नित्ये भाव तुं निज आत्मने। ५५।
देहादि संग विहीन छे, वर्ज्या सकळ मानादि छे,
आत्मा विषे रत आत्म छे, ते भावलिंगी श्रमण छे। ५६।