१९०] [अष्टपाहुड
देहादिसंगरहितः मानकषायैः सकलपरित्यक्तः।
आत्मा आत्मनि रतः स भावलिंगी भवेत् साधु।। ५६।।
अर्थः––भावलिंगी साधु ऐसा होता है–––देहादिक परिग्रहोंसे रहित होता है तथा मान
कषायसे रहित होता है और आत्मामें लीन होता है, वही आत्मा भावलिंगी है।
भावार्थः––आत्माके स्वाभाविक परिणाम को ‘भाव’ कहते है, उस रूप लिंग (चिन्ह),
लक्षण तथा रूप हो वह भावलिंग है। आत्मा अमूर्तिक चेतनारूप है, उसका परिणाम दर्शन ज्ञान
है। उसमें कर्मके निमित्त से (–पराश्रय करने से) बाह्य तो शरीरादिक मूर्तिक पदार्थका संबन्ध
है और अंतरंग मिथ्यात्व और रागद्वेष आदि कषायों का भाव है, इसलिये कहते हैं किः–––
बाह्य तो देहादिक परिग्रह से रहित और अंतरंग रागादिक परिणाममें अहंकार रूप
मानकषाय, परभावोंमें अपनापन मानना इस भावसे रहित हो और अपने दर्शनज्ञानरूप
चेतनाभावमें लीन हो वह ‘भावलिंग’ है, जिसको इसप्रकार के भाव हों वह भावलिंग साधु है।।
५६।।
आगे इसी अर्थ को स्पष्ट कर कहते हैः–––
ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे।। ५७।।
ममत्वं परिवर्जामि निर्ममत्वमुपस्थितः।
आलंबनं च मे आत्मा अवशेषानि व्युत्सृजामि।। ५७।।
अर्थः––भावलिंग मुनि के इसप्रकार के भाव होते है––––मैं परद्रव्य और परभावोंसे
ममत्व (अपना मानना) को छोड़ता हूँ और मेरा निजभाव ममत्वरहित है उसको अंगीकार कर
स्थित हूँ। अब मुझे आत्माका ही अवलंबन है, अन्य सभी को छोड़ता हूँ।
भावार्थः––सब परद्रव्योंका आलम्बन छोड़कर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो ऐसा
‘भावलिंग’ है।। ४७।।
आगे कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन, संयम, त्याग, संवर और योग ये भाव भावलिंगी
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परिवर्जुं छुं हुं ममत्व, निर्मम भावमां स्थित हुं रहुं;
अवलंबुं छुं मुज आत्मने, अवशेष सर्व हुं परिहरूं। ५७।