भावपाहुड][१९१
मुनिके होते हैं, ये अनेक हैं तो भी आत्मा ही है, इसलिये इनसे भी अभेदका अनुभव करता
हैः––––
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।। ५८।।
आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे।। ५८।।
अर्थः––भावलिंगी मुनि विचारते हैं कि––मेरे ज्ञानभाव प्रकट है उसमें आत्मा की ही
भावना है, ज्ञान कोई भिन्न वस्तु नहीं है, ज्ञान है वह आत्मा ही है, इसप्रकार ही दर्शनमें भी
आत्मा ही है। ज्ञानमें स्थिर रहना चारित्र है, इसमें भी आत्मा ही है। प्रत्याख्यान (अर्थात्
शुद्धनिश्चयनय के विषयभूत स्वद्रव्यके आलंबन के बल से) आगामी परद्रव्य का संबन्ध छोड़ना
है, इस भावमें भी आत्मा ही है, ‘संवर’ ज्ञानरूप रहना और परद्रव्य के भावरूप न परिणमना
है, इस भावमें भी मेरा आत्मा ही है, और ‘योग’ का अर्थ एकाग्रचिंतारूप समाधि–ध्यान है,
इस भावमें भी मेरा आत्मा ही है।
भावार्थः––ज्ञानादिक कुछ भिन्न पदार्थ तो हैं नहीं, आत्मा के ही भाव हैं, संज्ञा,
संख्या, लक्षण और प्रयोजन भेद से भिन्न कहते हैं, वहाँ अभेददृष्टिसे देखें तो ये सब भाव
आत्मा ही हैं इसलिये भावलिंगी मुनिके अभेद अनुभव में विकल्प नहीं है, अतः निर्विकल्प
अनुभव से सिद्धि है यह जानकर इसप्रकार करता है।। ५८।।
आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैंः–––
[अनुष्टुप श्लोक]
एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।। ५९।।
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मुज ज्ञानमां आत्मा खरे, दर्शन–चरितमां आतमा,
पचखाणमां आत्मा ज, संवर–योगमां पण आतमा। ५८।
मारो सुशाश्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे। ५९।