१९६] [अष्टपाहुड क्षयोपशम और क्षयकी अपेक्षा पाँच प्रकारका है। उसमें मिथ्यात्वभाव की अपेक्षा से मति, श्रुत, अवधि ये तीन मिथ्याज्ञान भी कहलाते हैं, इसलिये मिथ्याज्ञानका अभाव करने के लिये मनि, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान स्वरूप पाँच प्रकारका सम्यज्ञान जानकर उनको भाना। परमार्थ विचार से ज्ञान एक ही प्रकार का है। यह ज्ञानकी भावना स्वर्ग–मोक्षकी दाता है।। ६५।। आगे कहते हैं कि पढ़ना, सुनना भी भाव बिना कुछ नहीं हैः–––
पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण।
भावो कारण भूद्दो सायारणयार भूदाणं।। ६६।।
भावो कारण भूद्दो सायारणयार भूदाणं।। ६६।।
पठितेनापि किं क्रियते किं वा श्रुतेन भावरहितेन।
भावः कारणभूतः सागारानगारभूतानाम्।। ६६।।
भावः कारणभूतः सागारानगारभूतानाम्।। ६६।।
अर्थः––भावरहित पढ़ने सुनने से क्या होता है? अर्थात् कुछ भी कार्यकारी नहीं है,
इसलिये श्रावकत्व तथा मुनित्व इनका कारणभूत भाव ही है।
भावार्थः––मोक्षमार्ग में एकदेश, सर्वदेश व्रतोंकी प्रवृत्तिरूप मुनि–श्रावकपना है, उन
दोनोंका कारणभूत निश्चयसम्यगदर्शनादि भाव हैं। भाव बिना व्रतक्रियाकी कथनी कुछ कार्यकारी
नहीं है, इसलिये ऐसा उपदेश है कि भाव बिना पढ़ने–सुनने आदिसे क्या होता है? केवलखेद
मात्र है, इसलिये भावसहित जो करो वह सफल है। यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जाने कि–
–पढ़ना–सुनना ही ज्ञान है तो इसप्रकार नहीं है, पढ़कर–सुनकर आपको ज्ञामस्वरूप जानकर
अनुभव करे तब भाव जाना जाता है, इसलिये बारबार भावनासे भाव लगाने पर ही सिद्धि है।।
६६।।
आगे कहते हैं कि यदि बाह्य नगनपनेसे ही सिद्धि होतो नग्न तो सब ही होते हैंः–––
नहीं है, इसलिये ऐसा उपदेश है कि भाव बिना पढ़ने–सुनने आदिसे क्या होता है? केवलखेद
मात्र है, इसलिये भावसहित जो करो वह सफल है। यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जाने कि–
–पढ़ना–सुनना ही ज्ञान है तो इसप्रकार नहीं है, पढ़कर–सुनकर आपको ज्ञामस्वरूप जानकर
अनुभव करे तब भाव जाना जाता है, इसलिये बारबार भावनासे भाव लगाने पर ही सिद्धि है।।
६६।।
आगे कहते हैं कि यदि बाह्य नगनपनेसे ही सिद्धि होतो नग्न तो सब ही होते हैंः–––
दव्वेण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया।
परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता।। ६७।।
परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता।। ६७।।
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रे! पठन तेम ज श्रवण भावविहीनथी शुं सधाय छे?
सागार–अणगारत्वना कारणस्वरूपे भाव छे। ६६।
छे नग्न तो तिर्यंच–नारक सर्व जीवो द्रव्यथी;
सागार–अणगारत्वना कारणस्वरूपे भाव छे। ६६।
छे नग्न तो तिर्यंच–नारक सर्व जीवो द्रव्यथी;
परिणाम छे नहि शुद्ध ज्यां त्यां भावश्रमणपणुं नथी। ६७।