भावपाहुड][१९७
द्रव्येण सकला नग्नाः नारकतिर्यंचश्च सकलसंघाताः।
परिणामेन अशुद्धाः न भावश्रमणत्वं प्राप्ताः।। ६७।।
परिणामेन अशुद्धाः न भावश्रमणत्वं प्राप्ताः।। ६७।।
अर्थः––द्रव्यसे बाह्यमें तो सब प्राणी नग्न होते हैं। नारकी जीव और तिर्यंच जीव तो
निरन्तर वस्त्रादिसे रहित नग्न ही रहते हैं। ‘सकलसंघात’ कहनेसे अन्य मनुष्य आदि भी
कारण पाकर नग्न होते हैं तो भी परिणामोंसे अशुद्ध हैं, इसलिये भावश्रमणपनेको प्राप्त नहीं
हुए।
भावार्थः––यदि नग्न रहनेसे ही मुनिलिंग हो तो नारकी तिर्यंच आदि सब जीवसमूह
नग्न रहते हैं वे सब ही मुनि ठहरे, इसलिये मुनिपना तो भाव शुद्ध होनेपर ही होता है। अशुद्ध
भाव होने पर द्रव्य से नग्न भी हो तो भावमुनिपना नहीं पाता है।। ६७।।
आगे इसी अर्थको दृढ़ करनेके लिये केवल नग्नपने की निष्फलता दिखाते हैंः––
भाव होने पर द्रव्य से नग्न भी हो तो भावमुनिपना नहीं पाता है।। ६७।।
आगे इसी अर्थको दृढ़ करनेके लिये केवल नग्नपने की निष्फलता दिखाते हैंः––
णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसारसायरे भमइ।
णग्गो ण लभते बोहिं जिणभावणवज्जिओ सूदूरं।। ६८।।
णग्गो ण लभते बोहिं जिणभावणवज्जिओ सूदूरं।। ६८।।
नग्नः प्राप्नोति दुःखं नग्नः संसारसागरे भ्रमति।
नग्नः न लभते बोधिं जिनभावनावर्जितः सुचिरं।। ६८।।
नग्नः न लभते बोधिं जिनभावनावर्जितः सुचिरं।। ६८।।
अर्थः––नग्न सदा दुःख पाता है, नग्न सदा संसार–समुद्रमें भ्रमण करता है और नग्न
बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप स्वानुभवको नहीं पाता है, कैसा है वह नग्न––––
जो जिनभावनासे रहित है।
भावार्थः––‘जिनभावना’ जो सम्यग्दर्शन – भावना उससे रहित जो जीव है वह नग्न
भी रहे तो बोधि जो सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्रस्वरूप मोक्षमार्गको नहीं पाता है। इसलिये
संसारसमुद्रमें भ्रमण करता हुआ संसारमें ही दुःखको पाता है तथा वर्तमानमें भी जो पुरुष नग्न
होता है वह दुःखही को पाता है। सुख तो भावमुनि नग्न हों वे ही पाते हैं।। ६८।।
आगे इसी अर्थको दृढ़ करने के लिये कहते हैं–––जो द्रव्यनग्न होकर मुनि कहलावे
संसारसमुद्रमें भ्रमण करता हुआ संसारमें ही दुःखको पाता है तथा वर्तमानमें भी जो पुरुष नग्न
होता है वह दुःखही को पाता है। सुख तो भावमुनि नग्न हों वे ही पाते हैं।। ६८।।
आगे इसी अर्थको दृढ़ करने के लिये कहते हैं–––जो द्रव्यनग्न होकर मुनि कहलावे
उसका अपयश होता हैः–––
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ते नग्न पामे दुःखने, ते नग्न चिर भवमां भमे,
ते नग्न बोधि लहे नहीं, जिनभावना नहि जेहने। ६८।