परिणामेन अशुद्धाः न भावश्रमणत्वं प्राप्ताः।। ६७।।
अर्थः––द्रव्यसे बाह्यमें तो सब प्राणी नग्न होते हैं। नारकी जीव और तिर्यंच जीव तो
निरन्तर वस्त्रादिसे रहित नग्न ही रहते हैं। ‘सकलसंघात’ कहनेसे अन्य मनुष्य आदि भी
कारण पाकर नग्न होते हैं तो भी परिणामोंसे अशुद्ध हैं, इसलिये भावश्रमणपनेको प्राप्त नहीं
हुए।
भाव होने पर द्रव्य से नग्न भी हो तो भावमुनिपना नहीं पाता है।। ६७।।
णग्गो ण लभते बोहिं जिणभावणवज्जिओ सूदूरं।। ६८।।
नग्नः न लभते बोधिं जिनभावनावर्जितः सुचिरं।। ६८।।
अर्थः––नग्न सदा दुःख पाता है, नग्न सदा संसार–समुद्रमें भ्रमण करता है और नग्न
बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप स्वानुभवको नहीं पाता है, कैसा है वह नग्न––––
जो जिनभावनासे रहित है।
संसारसमुद्रमें भ्रमण करता हुआ संसारमें ही दुःखको पाता है तथा वर्तमानमें भी जो पुरुष नग्न
होता है वह दुःखही को पाता है। सुख तो भावमुनि नग्न हों वे ही पाते हैं।। ६८।।