१९८] [अष्टपाहुड
अयसाण भायणेण य किं ते णग्गेण पावमलिणेण।
पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण।। ६९।।
पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण।। ६९।।
अयशसां भाजनेन च किं ते नग्नेन पापमलिनेन।
पैशून्यहास मत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन।। ६९।।
पैशून्यहास मत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन।। ६९।।
अर्थः––हे मुने! तेरे ऐसे नग्नपने से तथा मुनिपनेसे क्या साध्य है? कैसा है––पैशून्य
अर्थात् दूसरे का दोष कहनेका स्वभाव, हास्य अर्थात् दूसरेकी हँसी करना, मत्सर अर्थात् अपने
बराबरवालेसे ईर्ष्या रखकर दूसरेको नीचा करनेकी बुद्धि, माया अर्थात् कुटिल परिणाम, ये भाव
उसमें प्रचुरता से पाये जाते हैं, इसलिये पापसे मलिन है और अयश अर्थात् अपकीर्तिका भाजन
है।
भावार्थः––पैशून्य आदि पापोंसे मलिन इसप्रकार नग्नस्वरूप मुनिपने से क्या साध्य है?
उलटा अपकीर्तिका भाजन होकर व्यवहारधर्मकी हँसी करानेवाला होता है, इसलिये भावलिंगी
होना योग्य है।। ६९।।
आगे इसप्रकार भावलिंगी होनेका उपदेश करते हैंः–––
होना योग्य है।। ६९।।
आगे इसप्रकार भावलिंगी होनेका उपदेश करते हैंः–––
पयडहिं जिणवरलिंगं अब्भिंतरभावदोसपरिसुद्धो।
भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ।। ७०।।
भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ।। ७०।।
प्रकट्य जिनवरलिंगं अभ्यन्तरभावदोषपरिशुद्धः।
भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मलिनयति।। ७०।।
भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मलिनयति।। ७०।।
अर्थः––हे आत्मन् तू अभ्यन्तर भावदोषोंसे अत्यन्त शुद्ध ऐसा जिनवर लिंग अर्थात् बाह्य
निर्गन्थ लिंग प्रगट कर, भावशुद्धिके बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा, क्योंकि भावमलिन जीव
बाह्य परिग्रह में मलिन होता है।
भावार्थः––यदि भाव शुद्धकर द्रव्यलिंग धारणकरे तो भ्रष्ट न हो और भाव मलिन
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शुं साध्य तारे अयशभाजन पापयुत नग्नत्वथी,
–बहु हास्य–मत्सर–पिशुनता–मायाभर्या श्रमणत्वथी? ६९।
थई शुद्ध आंतर–भाव मळविण, प्रगट कर जिनलिंगने;
–बहु हास्य–मत्सर–पिशुनता–मायाभर्या श्रमणत्वथी? ६९।
थई शुद्ध आंतर–भाव मळविण, प्रगट कर जिनलिंगने;
जी भावमळथी मलिन बाहिर–संगमां मलिनित बने। ७०।