पेसुण्णहासमच्छरमायाबहुलेण सवणेण।। ६९।।
पैशून्यहास मत्सरमायाबहुलेन श्रमणेन।। ६९।।
अर्थः––हे मुने! तेरे ऐसे नग्नपने से तथा मुनिपनेसे क्या साध्य है? कैसा है––पैशून्य
अर्थात् दूसरे का दोष कहनेका स्वभाव, हास्य अर्थात् दूसरेकी हँसी करना, मत्सर अर्थात् अपने
बराबरवालेसे ईर्ष्या रखकर दूसरेको नीचा करनेकी बुद्धि, माया अर्थात् कुटिल परिणाम, ये भाव
उसमें प्रचुरता से पाये जाते हैं, इसलिये पापसे मलिन है और अयश अर्थात् अपकीर्तिका भाजन
है।
होना योग्य है।। ६९।।
भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मयलियइ।। ७०।।
भावमलेन च जीवः बाह्यसंगे मलिनयति।। ७०।।
अर्थः––हे आत्मन् तू अभ्यन्तर भावदोषोंसे अत्यन्त शुद्ध ऐसा जिनवर लिंग अर्थात् बाह्य
निर्गन्थ लिंग प्रगट कर, भावशुद्धिके बिना द्रव्यलिंग बिगड़ जायेगा, क्योंकि भावमलिन जीव
बाह्य परिग्रह में मलिन होता है।
–बहु हास्य–मत्सर–पिशुनता–मायाभर्या श्रमणत्वथी? ६९।
थई शुद्ध आंतर–भाव मळविण, प्रगट कर जिनलिंगने;