है, विशुद्ध भावोंके बिना बाह्यभेष धारण करना योग्य नहीं है।। ७०।।
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण।। ७१।।
निष्फलनिर्गुणकारः नटश्रमणः नग्नरूपेण।। ७१।।
अर्थः––धर्म अर्थात् अपना स्वभाव तथा दसलक्षणस्वरूपमें जिसका वास नहीं है वह
जीव दोषोंका आवास है अथवा जिसमें दोष रहते हैं वह इक्षुके फूल समान हैं, जिसके न तो
कुछ फल ही लगते हैं और न उनमें गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं। इसलिये ऐसा मुनि तो
नग्नरूप करके नटश्रमण अर्थात् नाचने वाले भाँड़के स्वांग के समान हैं।
मोक्षरूप फल नहीं लगते हैं। सम्यग्ज्ञानादि गुण जिसमें नहीं हैं वह नग्न होने पर भाँड़ जैसा
स्वांग दीखता है। भाँड़ भी नाचे तब श्रृङ्गारादिक करके नाचे तो शोभा पावे, नग्न होकर नाचे
तब हास्य को पावे, वैसे ही केवल द्रव्यनग्न हास्यका स्थान है।। ७१।।
ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले।। ७२।।
ते ईक्षुफूलसमान निष्फळ–निर्गुणी, नटश्रमण छे। ७१।
जे रागयुत जिनभावनाविरहित–दरवनिर्ग्रंथ छे,