Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 71-72 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][१९९
होंतो बाह्य परिग्रहकी संगति द्रव्यलिंग भी बिगाड़े, इसलिये प्रधानरूपसे भावलिंगहीका उपदेश
है, विशुद्ध भावोंके बिना बाह्यभेष धारण करना योग्य नहीं है।। ७०।।

आगे कहते हैं कि जो भावरहित नग्न मुनि है वह हास्यका स्थान हैः––
धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो।
णिप्फलणिग्गुणयारो णडसवणो णग्गरूवेण।। ७१।।
धर्मे निप्रवासः दोषावासः च इक्षुपुष्पसमः।
निष्फलनिर्गुणकारः नटश्रमणः नग्नरूपेण।। ७१।।

अर्थः
––धर्म अर्थात् अपना स्वभाव तथा दसलक्षणस्वरूपमें जिसका वास नहीं है वह
जीव दोषोंका आवास है अथवा जिसमें दोष रहते हैं वह इक्षुके फूल समान हैं, जिसके न तो
कुछ फल ही लगते हैं और न उनमें गंधादिक गुण ही पाये जाते हैं। इसलिये ऐसा मुनि तो
नग्नरूप करके नटश्रमण अर्थात् नाचने वाले भाँड़के स्वांग के समान हैं।
भावार्थः––जिसके धर्मकी वासना नहीं है उसमें क्रोधादिक दोष ही रहते हैं। यदि वह
दिगम्बर रूप धारण करे तो वह मुनि इक्षुके फूल के समान निर्गुण और निष्फल है, ऐसे मुनिके
मोक्षरूप फल नहीं लगते हैं। सम्यग्ज्ञानादि गुण जिसमें नहीं हैं वह नग्न होने पर भाँड़ जैसा
स्वांग दीखता है। भाँड़ भी नाचे तब श्रृङ्गारादिक करके नाचे तो शोभा पावे, नग्न होकर नाचे
तब हास्य को पावे, वैसे ही केवल द्रव्यनग्न हास्यका स्थान है।। ७१।।

आगे इसी अर्थके समर्थनरूप कहते हैं कि–––––द्रव्यलिंगी बोधि–समाधि जैसी
जिनमार्गमें कही है वैसी नहीं पाता हैः––––
जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा।
ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले।। ७२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ ‘उच्छु’ पाठान्तर ‘इच्छु’
नग्नत्वधर पण धर्ममां नहि वास, दोषावास छे,
ते ईक्षुफूलसमान निष्फळ–निर्गुणी, नटश्रमण छे। ७१।

जे रागयुत जिनभावनाविरहित–दरवनिर्ग्रंथ छे,
पामे न बोधि–समाधिने ते विमळ जिनशासन विषे। ७२।