२००] [अष्टपाहुड
ये रागसंगयुक्ताः जिनभावनारहितद्रव्यनिर्ग्रंथाः।
न लभंते ते समाधिं बोधिं जिनशासने विमले।। ७२।।
अर्थः––जो मुनि राग अर्थात् अभ्यंतर परद्रव्यसे प्रीति, वही हुआ संग अर्थात् परिग्रह
उससे युक्त हैं और जिनभावना अर्थात् शुद्धस्वरूपकी भावनासे रहित हैं वे द्रव्यनिर्ग्रंथ हैं तो भी
निर्मल जिनशासन में जो समाधि अर्थात् धर्म–शुक्लध्यान और बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग को नहीं पाते।
भावार्थः––द्रव्यलिंगी अभ्यन्तरका राग नहीं छोड़ता है, परमात्माका ध्यान नहीं करता है,
तब कैसे मोक्षमार्ग पावे तथा कैसे समाधिमरण पावे।। ७२।।
आगे कहते हैं कि पहिले मिथ्यात्व आदिक दोष छोड़कर भावसे नग्न हो, पीछे द्रव्यमुनि
बने यह मार्ग हैः––––
भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं।
पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए।। ७३।।
भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादीन् च दोषान् त्यक्त्वा।
पश्चात् द्रव्येणमुनिः प्रकट्यति लिंगं जिनाज्ञया।। ७३।।
अर्थः––पहिले मिथ्यात्व आदि दोषोंको छोड़कर और भावसे अंतरंग नग्न हो, एकरूप
शुद्धात्माका श्रद्धान – ज्ञान – आचरण करे, पीछे मुनि द्रव्यसे बाह्यलिंग जिन–आज्ञासे प्रकट
करे, यह मार्ग है।
भावार्थः––भाव शुद्ध हुए बिना पहिले ही दिगमबररूप धारण करले तो पीछे भाव बिगडे़
तब भ्रष्ट हो जाय और भ्रष्ट होकर भी मुनि कहलाता रहे तो मार्गकी हँसी करावे, इसलिये
जिन आज्ञा यही है कि भाव शुद्ध करके बाह्य मुनिपना प्रकट करो।।७३।।
आगे कहते हैं कि शुद्ध भाव ही स्वर्ग – मोक्षका कारण है, मलिनभाव संसार का कारण
हैः–––
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मिथ्यात्व आदिक दोष छोडी नग्न भाव थकी बने,
पछी द्रव्यथी मुनिलिंग धारे जीव जिन–आज्ञा वडे। ७३।