भावपाहुड][२०१
भावो वि दिव्वसिवसुक्खभायणो भाववज्जिओ सवणो।
कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो।। ७४।।
भावः अपि दिव्यशिवसोख्यभाजनं भाववर्जितः श्रमणः।
कर्ममलमलिनचित्तः तिर्यंगालयभाजनं पापः।। ७४।।
अर्थः––भाव ही स्वर्ग – मोक्षका कारण है, और भाव रहित श्रमण पापस्वरूप है,
तिर्यंचगतिका स्थान है तथा कर्ममलसे मलिन चित्तवाला है।
भावार्थः––भावसे शुद्ध है वह तो स्वर्ग–मोक्षका पात्र है और भावेस मलिन है वह
तिर्यंचगतिमें निवास करता है।। ७४।।
आगे फिर भावके फलका माहात्म्य कहते हैंः–––
खयरामरमणुयकरंजलिमालाहिं च संथुया विउला।
चक्कहररायलच्छी लब्भइ बोही सुभावेण।। ७५।।
खचरामरमनुज करांजलिमालाभिश्व संस्तुता विपुला।
चक्रधरराजलक्ष्मीः लभ्यते बोधिः सुभावेन।। ७५।।
अर्थः––सुभाव अर्थात् भले भावसे, मंदकषायरूप विशुद्धभावसे, चक्रवर्ती आदि
राजाओंकी विपुल अर्थात् बड़ी लक्ष्मी पाता है। कैसी है–––खचर (विद्याधर), अमर (देव)
और मनुज (मनुष्य) इनकी अंजुलिमाला (हाथोंकी अंजुलि) की पंक्तिसे संस्तुत
(नमस्कारपूर्वक स्तुति करने योग्य) है और यह केवल लक्ष्मी ही नहीं पाता है, किन्तु बोधि
(रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग) पाता है।
भावार्थः––विशुद्ध भावोंका यह माहात्म्य है।। ७५।।
आगे भावोंके भेद कहते हैंः–––
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छे भाव दिवशिवसौख्यभाजन; भाववर्जित श्रमण जे
पापी करममळमलिनमन, तिर्यंचगतिनुं पात्र छे। ७४।
नर अमर–विद्याधर वडे संस्तुत करांजलिपंक्तिथी
चक्री–विशाळविभूति बोधि प्राप्त थाय सुभावथी। ७५।