असुहं च अट्टरउद्दं सुह धम्मं जिणवरिंदेहिं।। ७६।।
अशुभश्च आर्त्तरौद्रं शुभः धर्म्यं जिनवरेन्द्रैः।। ७६।।
अर्थः––जिनवरदेवने भाव तीन प्रकारका कहा है––––१ शुभ, २ अशुभ और ३ शुद्ध।
आर्त्त और रौद्र ये अशुभ ध्यान है तथा धर्मध्यान शुभ है।। ७६।।
इदि जिणवरेहिं भणियं जं सेयं तं समायरह।। ७७।।
इति जिनवरैः भणितं यः श्रेयान् तं समाचर।। ७७।।
अर्थः––शुद्ध है वह अपना शुद्धस्वभाव अपने ही में इसप्रकार जिनवरदेवने कहा है, वह
जानकर इनमें जो कल्याणरूप हो उसको अंगीकार करो।
इसप्रकार यह कथंचित् उपादेय है इससे मंदकषायरूप विशुद्धि भावकी प्राप्ति है। शुद्ध भाव है
वह सर्वथा उपादेय है क्योंकि यह आत्मा का स्वरूप ही है। इसप्रकार हेय जानकर त्याग और
ग्रहण करना चाहिये, इसीलिये ऐसा कहा है कि जो कल्याणकारी हो वह अंगीकार करना यह
जिनदेवका उपदेश है।। ७७।।
त्यां ‘अशुभ’
आत्मा विशुद्ध स्वभाव आत्म महीं रहे ते ‘शुद्ध’ छे;