भावपाहुड][२०३
पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्त मोहसमचित्तो।
पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो।। ७८।।
पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो।। ७८।।
प्रगलितमानकषायः प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः।
आप्नोति त्रिभुवनसारं बोधिं जिनशासने जीवः।। ७८।।
आप्नोति त्रिभुवनसारं बोधिं जिनशासने जीवः।। ७८।।
अर्थः––यह जीव ‘प्रगलितमानकषाय’ अर्थात् जिसका मानकषाय प्रकर्षतासे गल गया
है, किसी परद्रव्यसे अहंकाररूप गर्व नहीं करता है और जिसके मिथ्यात्वका उदयरूप मोह भी
नष्ट हो गया है इसीलिये ‘समचित्त’ है, परद्रव्यमें ममकाररूप मिथ्यात्व और इष्ट–अनिष्ट
बुद्धिरूप राग–द्वेष जिसके नहीं है, वह जिनशासनमें तीन भुवनमें सार ऐसी बोधि अर्थात्
रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को पाता है।
भावार्थः––मिथ्यात्वभाव और कषायभाव का स्वरूप अन्य मतों में यथार्थ नहीं है। यह
कथन इस वीतरागरूप जिनमत में ही है, इसलिये यह जीव मिथ्यात्व कषाय के अभावरूप
मोक्षमार्ग तीनलोक में सार जिनमत के सेवन ही से पाता है, अन्यत्र नहीं है।
आगे कहते हैं कि जिनशासनमें ऐसा मुनि ही तीर्थंकर–प्रकृति बाँधता हैः–––
मोक्षमार्ग तीनलोक में सार जिनमत के सेवन ही से पाता है, अन्यत्र नहीं है।
आगे कहते हैं कि जिनशासनमें ऐसा मुनि ही तीर्थंकर–प्रकृति बाँधता हैः–––
विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाइं भाऊण।
तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण।। ७९।।
तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण।। ७९।।
विसयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणानि भावयित्वा।
तीर्थंकरनामकर्म, बध्नाति अचिरेण कालेन।। ७९।।
तीर्थंकरनामकर्म, बध्नाति अचिरेण कालेन।। ७९।।
अर्थः––जिसका चित्त इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त है ऐसा श्रमण अर्थात् मुनि है यह
सोलहकारण भावनाको भाकर ‘तीर्थंकर’ नाम प्रकृतिको थोड़े ही समयमें बाँध लेता है।
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छे मलितमानकषाय, मोह विनष्ट थई समचित्त छे,
ते जीव त्रिभुवनसार बोधि लहे जिनेश्वरशासने। ७८।
विषये विरत मुनि सोळ उत्तम कारणोने भावीने,
ते जीव त्रिभुवनसार बोधि लहे जिनेश्वरशासने। ७८।
विषये विरत मुनि सोळ उत्तम कारणोने भावीने,
बांधे अचिर काळे करम तीर्थंकरत्व–सुनामने। ७९।