तीनलोकसे पूज्य ‘तीर्थंकर’ नाम प्रकृतिको बाँधता है और उसको भोगकर मोक्षको प्राप्त होता
है। ये सोलहकारण भावनाके नाम हैं, १– दर्शनविशुद्धि, २– विनयसंपन्नता, ३–
शीलव्रतेष्वनतिचार, ४– अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५– संवेग, ६– शक्तितस्त्याग, ७– शक्तितस्तप,
८–साधुसमाधि, ९– वैयावृत्त्यकरण, १०– अर्हद्भक्ति, ११– आचार्यभक्ति, १२– बहुश्रुतभक्ति,
१३– प्रवचनभक्ति, १४– आवश्यकापरिहाणि, १५– सन्मार्गप्रभावना, १६– प्रवचनवात्सल्य,
इसप्रकार सोलहकारण भावना हैं। इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी टीकासे जानिये। इनमें
सम्यग्दर्शन प्रधान है, यह न हो और पन्द्रह भावनाका व्यवहार हो तो कार्यकारी नहीं और यह
हो तो पन्द्रह भावना का कार्य यही कर ले, इसप्रकार जानना चाहिये।। ७९।।
धरहि मणमत्तदुरियं णाणंकुसएण मुणिपवर।। ८०।।
धर मनोमत्तदुरितं ज्ञानांकुशेन मुनिप्रवर!।। ८०।।
अर्थः––हे मुनिवर! मुनियोंमें श्रेष्ठ! तू बारह प्रकार के तपका आचरण कर और तेरह
प्रकार की क्रिया मन–वचन–कायसे भा और ज्ञानरूप अंकुशसे मनरूप मतवाले हाथीको अपने
वश में रख।
ये बारह तपों के नाम हैं १– अनशन, २– अवमौदर्य, ३– वृत्तिपरिसंख्यान, ४– रसपरित्याग,
५–विविक्तशय्यासन, ६– कायक्लेश ये तो छह प्रकार के बाह्य तप हैं, और १– प्रायश्चित, २–
विनय, ३– वैयावृत्त, ४–स्वाध्याय ५–व्युत्सर्ग ६– ध्यान ये छह प्रकार के अभ्यंतर तप हैं,
इनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी टीकासे जानना चाहिये।