भावपाहुड][२११
राजा सूरसेन भी मर कर वहाँ ही उसी महामत्स्य के कान में तंदुल मत्स्य हो गया।
वहाँ महामत्स्य मुखमें अनेक जीव आवें, बाहर निकल जावें, तब तंदुल मत्स्य
उनको देखकर विचार करे कि यह महामत्स्य अभागा है जो मुँह में आये हुए जीवों को खाता
नहीं है। यदि मेरा शरीर इतना बड़ा होता तो इस समुद्र के सब जीवों को खा जाता। ऐसे
भावोंके पापसे जीवों को खाये बिना ही सातवें नरकमें गया और महामत्स्य तो खानेवाला था
सो वह तो नरक में जाय ही जाय।
इसलिये अशुद्धभाव सहित बाह्य पाप करना तो नरक का कारण है ही, परन्तु बाह्य
हिंसादिक पापके किये बिना केवल अशुद्धभाव भी उसीके समान है, इसलिये भावोंमें अशुभ
ध्यान छोड़कर शुभ ध्यान करना योग्य है। यहाँ ऐसा भी जानना कि पहिले राज पाया था सो
पहिले पुण्य किया था उसका फल था,पीछे कुभाव हुए तब नरक गया इसलिये आत्मज्ञान के
बिना केवल पुण्य ही मोक्ष का साधन नहीं है।। ८८।।
आगे कहते हैं कि भावरहित के बाह्य परिग्रहका त्यागादि सब निष्प्रयोजन हैः–––
बाहिरसंगच्चाओ गिरिसरिदरिकंदराइ आवासो।
सयलो णाणज्झयणो णिरत्थओ भावरहियाणं।। ८९।।
बाह्यसंगत्यागः गिरिसरिद्दरीकंदरादौ आवासः।
सकलं ज्ञानाध्ययनं निरर्थकं भावरहितानाम्र्।। ८९।।
अर्थः––जो पुरुष भाव रहित हैं, शुद्ध आत्माकी भावनासे रहित हैं और बाह्य आचरणसे
सन्तुष्ट हैं, उनके बाह्य परिग्रहका त्याग है वह निरर्थक है। गिरि (पर्वत), दरी (पर्वत की
गुफा), सरित् (नदी के पास), कंदर (पर्वत के जल से चिरा हुआ स्थान) इत्यादि स्थानोंमें
आवास (रहना) निरर्थक है। ध्यान करना, आसन द्वारा मन को रोकना अध्ययन (पढ़ना) ––
––ये सब निरर्थक हैं।
भावार्थः––बाह्य क्रियाका फल आत्नज्ञान सहित हो तो सफल हो, अन्याय सब निरर्थक
है। पुण्यका फल हो तो भी संसारका ही कारण है, मोक्षफल नहीं है।। ८९।।
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रे! बाह्यपरिग्रहत्याग, पर्वत–कंदरादिनिवासने
ज्ञानाध्ययन सघळुं निरर्थक भावविरहित श्रमणने। ८९।