Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 90-91 (Bhav Pahud).

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२१२] [अष्टपाहुड

आगे उपदेश करते हैं कि भावशुद्धि के लिये इन्द्रियादिक को वश करो, भावशुद्धिके बिना बाह्य भेषका आडम्बर मत करोः–––

भंजसु इन्दियसेणं भंजसु मणमक्कडं पयत्तेण।
मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुणसु।। ९०।।
भंग्धि इन्द्रियसेनां भंग्धि मनोमर्कटं प्रयत्नेन।
मा जनरंजनकरणं बहिर्व्रतवेष त्वंकार्षीः।। ९०।।

अर्थः
––हे मुने! तू इन्द्रियोंकी सेना है उसका भंजन कर, विषयोंमें मत रम, मनरूप
बंदर को प्रयत्नपूर्वक बड़ा उद्यम करके भंजन कर, वशीभूत कर और बाह्यव्रत का भेष लोकमें
रंजन करने वाला मत धारण कर।

भावार्थः––बाह्य मुनिका भेष लोकका रंजन करने वाला है, इसलिये यह उपदेश है;
लोकरंजन से कुछ परमार्थ सिद्धि नहीं है, इसलिये इन्द्रिय और मनको वश में करने के लिये
बाह्य यत्न करे तो श्रेष्ठ है। इन्द्रिय और मन को वश में किये बिना केवल लोकरंजनमात्र भेष
धारण करने से कुछ परमार्थ सिद्धि नहीं है।। ९०।।

आगे फिर उपदेश कहते हैंः––
णवणोकसायवग्गं मिच्छत्तं चयसु भावसुद्धाए।
चेइयपवयणगुरुणं करेहि भत्तिं जिणाणाए।। ९१।।
नवनोकषायवर्गं मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्ध्या।
चैत्यप्रवचनगुरुणां कुरु भक्तिं जिनाज्ञया।। ९१।।

अर्थः
––हे मुने! तू नव जो हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद,
पुरुषवेद, नपुंसकवेद–––––ये नो कषायवर्ग तथ मिथ्यात्व इनको भावशुद्धि द्वारा छोड़ और
निआज्ञा से चैत्य, प्रवचन, गुरु इनकी भक्ति कर।। ९१।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुं इन्द्रिसेना तोड मनमर्कट तुं वश कर यत्नथी,
नहि कर तुं जनरंजनकरण बहिरंग–व्रतवेशी बनी। ९०।

मिथ्यात्व ने नव नोकषाय तुं छोड भावविशुद्धिथी;
कर भक्ति जिन–आज्ञानुसार तुं चैत्य–प्रवचन–गुरु तणी। ९१।