Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 92-93 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][२१३
शिवधामवासी सिद्ध थाय–त्रिलोकना चूडामणि। ९३।
आगे फिर कहते हैंः––
तित्थयर भासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं।
भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं।। ९२।।
तीर्थंकरभाषितार्थं गणधरदेवैः ग्रथितं सम्यक्।
भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम्।। ९२।।

अर्थः
––हे मुने! तू जिस श्रुतज्ञानको तीर्थंकर भगवानने कहा और गणधर देवोंने गूंथा
अर्थात् शास्त्ररूप रचना की उसकी सम्यक् प्रकार भाव शुद्ध कर निरन्तर भावना कर। कैसा है
वह श्रुतज्ञान? अतुल है, इसके बराबर अन्य मतका कहा हुआ श्रुतज्ञान नहीं है।। ९२।।

ऐसा करने से क्या होता है्र सो कहते हैंः–––
पीऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का।
होंति सिवालयवासी तिहुवणचूडामणी सिद्धा।। ९३।।
पीत्वा ज्ञानसलिलं निर्मथ्यतृषादाहशोषोन्मुक्ता।
भवंति शिवालयवासिनः त्रिभुवन चूडामणयः सिद्धाः।। ९३।।

अर्थः
––पूर्वोक्त प्रकार भाव शुद्ध करने पर ज्ञानरूप जलको पीकर सिद्ध होते हैं। कैसे
हैं सिद्ध? निर्मथ्य अर्थात् मथा न जावे ऐसे तृषादाह शोष से रहित हैं, इस प्रकार सिद्ध होते
है; ज्ञानरूप जल पीने का यह फल है। सिद्ध शिवालय अर्थात् मुक्तिरूप महलमें रहनेवाले हैं,
लोकके शिखर पर जिनका वास है। इसीलिये कैसे हैं? तीन भुवनके चुड़ामणि हैं, मुकुटमणि हैं
तथा तीन भुवन में ऐसा सुख नहीं है, ऐसे परमानंद अविनाशी सुखको वे भोगते हैं। इसप्रकार
वे तीन भुवन के मुकुटमणि हैं।
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१ पाठान्तरः– पाऊण। २ पाठान्तरः– प्राप्य।
तीर्थेशभाषित–अर्थमय, गणधर सुविरचित जेह छे,
प्रतिदिन तुं भाव विशुद्धभावे ते अतुल श्रुतज्ञानने। ९२।
जीव ज्ञानजळ पी, तीव्रतृष्णादाहशोष थकी छूटी,