भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं।। ९२।।
भावय अनुदिनं अतुलं विशुद्धभावेन श्रुतज्ञानम्।। ९२।।
अर्थः––हे मुने! तू जिस श्रुतज्ञानको तीर्थंकर भगवानने कहा और गणधर देवोंने गूंथा
अर्थात् शास्त्ररूप रचना की उसकी सम्यक् प्रकार भाव शुद्ध कर निरन्तर भावना कर। कैसा है
वह श्रुतज्ञान? अतुल है, इसके बराबर अन्य मतका कहा हुआ श्रुतज्ञान नहीं है।। ९२।।
अर्थः––पूर्वोक्त प्रकार भाव शुद्ध करने पर ज्ञानरूप जलको पीकर सिद्ध होते हैं। कैसे
हैं सिद्ध? निर्मथ्य अर्थात् मथा न जावे ऐसे तृषादाह शोष से रहित हैं, इस प्रकार सिद्ध होते
है; ज्ञानरूप जल पीने का यह फल है। सिद्ध शिवालय अर्थात् मुक्तिरूप महलमें रहनेवाले हैं,
लोकके शिखर पर जिनका वास है। इसीलिये कैसे हैं? तीन भुवनके चुड़ामणि हैं, मुकुटमणि हैं
तथा तीन भुवन में ऐसा सुख नहीं है, ऐसे परमानंद अविनाशी सुखको वे भोगते हैं। इसप्रकार
वे तीन भुवन के मुकुटमणि हैं।
प्रतिदिन तुं भाव विशुद्धभावे ते अतुल श्रुतज्ञानने। ९२।