२१४] [अष्टपाहुड
आगे भाव शुद्धि के लिये फिर उपदेश करते हैंः–––
भावार्थः––शुद्ध भाव करके ज्ञानरूप जल पीने पर तृषादाह शोष मिट जाता है,
इसलिये ऐसे कहा है कि परमानन्दरूप सिद्ध होते हैं।। ९३।।
दस दस दो सुपरीसह सहहि मुणी सयलकाल काएण।
सुत्तेण अप्पमत्तो संजमघादं पमोत्तूण।। ९४।।
तह साहू वि ण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहिंतो।। ९५।।
दश दश द्वौ सुपरीषहान् सहस्व मुने! सकलकालं कायेन।
सूत्रेण अप्रमत्तः संयमघातं प्रमुच्य।। ९४।।
अर्थः––हे मुने! तू दस दस दो अर्थात् बाईस जो सुपरीषह अर्थात्ातिशय कर सहने
योग्य को सूत्रेण अर्थात् जैसे जिनवचनमें कहे हैं उसी रीति से निःप्रमादी होकर संयमका घात
दूरकर और अपनी कायसे सदाकाल निरंतर सहन कर।
भवार्थः––जैसे संयम न बिगड़े और प्रमादका निवारण हो वैसे निरन्तर मुनि क्षुधा, तृषा
आदिक बाईस परीषह सहन करे। इनको सहन करनेका प्रयोजन सूत्रमें ऐसा कहा है कि–––
इनके सहन करने से कर्म की निर्जरा होती है और संयम के मार्ग से छूटना नहीं होता है,
परिणाम दृढ़ होते हैं।। ९४।।
आगे कहते हैं कि–––जो परीषह सहनेमें दृढ़ होता है वह उपसर्ग आने पर भी दृढ़
रहता है, च्युत नहीं होता, उसका दृष्टांत कहते हैंः––––
जह पत्थरो ण भिज्जइ परिट्ठिओ दीहकालमुदएण१।
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१ ‘मुदकेण’ पाठान्तर ‘मुदएण’।
बावीश परिषह सर्व काळ सहो मुने! काया वडे,
अप्रमत्त रही, सूत्रानुसार, निवारी संयमघातने। ९४।
पथ्थर रह्यो चिर पाणीमां भेदाय नहि पाणी वडे,
त्यम साधु पण भेदाय नहि उपसर्ग ने परीषह वडे। ९५।