२१६] [अष्टपाहुड
सव्वविरओ वि भावहि णव य पयत्थाइं सत्त तच्चाइं।
जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाइं।। ९७।।
जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाइं।। ९७।।
सर्व वरितः अपि भावय नव पदार्थान् सप्त तत्त्वानि।
जीवसमासान् मुने! चतुर्दशगुणस्थाननामानि।। ९७।।
जीवसमासान् मुने! चतुर्दशगुणस्थाननामानि।। ९७।।
अर्थः––हे मुने! तू सब परिग्रहादिकसे विरक्त हो गया है, महाव्रत सहित है तो भी
भाव विशुद्धिके लिये नव पदार्थ, सप्त तत्त्व, चौदह जीवसमास, चौदह गुणस्थान इनके नाम
लक्षण भेदइत्यादिकों की भावना कर।
भावार्थः––पदार्थों के स्वरूपका चिन्तन करना भावशुद्धिका बड़ा उपाय है इसलिये यह
लक्षण भेदइत्यादिकों की भावना कर।
भावार्थः––पदार्थों के स्वरूपका चिन्तन करना भावशुद्धिका बड़ा उपाय है इसलिये यह
उपदेश है। इनका नाम स्वरूप अन्य ग्रंथोंसे जानना।। ९७।।
आगे भाव शुद्धिके लिये अन्य उपाय कहते हैंः––––
आगे भाव शुद्धिके लिये अन्य उपाय कहते हैंः––––
णवविहबंभं पयडहि अब्बंभं दसविहं णमोत्तूण।
मेहूणसण्णासत्तो भमिओ सि भवण्णवे भीमे।। ९८।।
मेहूणसण्णासत्तो भमिओ सि भवण्णवे भीमे।। ९८।।
नवविधब्रह्मचर्यं प्रकट्य अब्रह्म दशविधं प्रमुच्य।
मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोऽसि भवार्णवे भीमे।। ९८।।
मैथुनसंज्ञासक्तः भ्रमितोऽसि भवार्णवे भीमे।। ९८।।
अर्थः––हे जीव! तू पहिले दस प्रकारका अब्रह्म है उसको छोड़कर नव प्रकारका
ब्रह्मचर्य है उसको प्रगटकर, भावोंमें प्रत्यक्ष कर। यह उपदेश इसलिये दिया है कि तू मैथूनसंज्ञा
जो कामसेवनकी अभिलाषा उसमें आसक्त होकर अशुद्ध भावोंसे इस भीम (भयानक)
संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करता रहा।
भावार्थः––यह प्राणी मैथुनसंज्ञा में आसक्त होकर गृहस्थपना आदिक अनेक उपायोंसे
भावार्थः––यह प्राणी मैथुनसंज्ञा में आसक्त होकर गृहस्थपना आदिक अनेक उपायोंसे
स्त्रीसेवनादिक अशुद्धभावोंसे अशुभ कार्यों में प्रवर्तता है, उससे इस भयानक संसारसमुद्र में
भ्रमण करता है, इसलिये यह उपदेश है कि–––दस प्रकारके अब्रह्मको छोड़कर नव प्रकारके
ब्रह्मचर्यको अंगीकार करो।
भ्रमण करता है, इसलिये यह उपदेश है कि–––दस प्रकारके अब्रह्मको छोड़कर नव प्रकारके
ब्रह्मचर्यको अंगीकार करो।
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पूरणविरत पण भाव तुं नव अर्थ, तत्त्वो सातने,
मुनि! भाव जीवसमासने, गुणस्थान भाव तुं चौदने। ९७।
अब्रह्म दशविध टाळी तुं प्रगटाव नवविध ब्रह्मने;
मुनि! भाव जीवसमासने, गुणस्थान भाव तुं चौदने। ९७।
अब्रह्म दशविध टाळी तुं प्रगटाव नवविध ब्रह्मने;
रे! मिथुनसंज्ञासक्त तें कर्युं भ्रमण भीम भवार्णवे। ९८।