Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 99 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][२१७
नव प्रकारका ब्रह्मचर्य इसप्रकार है–––––नव कारणोंसे ब्रह्मचर्य बिगड़ता है, उनके
नाम ये हैं–––––१ स्त्रीको सेवन करने की अभिलाषा, २ स्त्रीके अंगका स्पर्शन, ३ पुष्ट
रसका सेवन, ४ स्त्रीसे संसक्त वस्तु शय्या आदिकका सेवन, ५ स्त्रीके मुख, नेत्र आदिकको
देखना, ६ स्त्रीका सत्कार–पुरस्कार करना, ७ पहिले किये हुए स्त्रीसेवनको याद करना, ८
आगामी स्त्रीसेवनकी अभिलाषा करना, ९ मनवांछित इष्ट विषयोंका सेवन करना ऐसे नव प्रकार
हैं। इनका त्याग करना सो नवभेदरूप ब्रह्मचर्य है अथवा मन–वचन–काय, कृत–कारित–
अनुमोदनासे ब्रह्मचर्यका पालन करना ऐसे भी नव प्रकार हैं। ऐसे करना सो भी भाव शुद्ध
होनेका उपाय है।। ९८।।
भावार्थः–– निश्चय सम्यक्त्वका शुद्ध आत्माका अनुभूतिरूप श्रद्धान है सो भाव है, ऐसे
भावसहित हो उसके चार आराधना होती है उसका फल अरहन्त सिद्ध पद है, और ऐसे भाव
से रहित हो उसके आराधना नहीं होती है, उसका फल संसार का भ्रमण है। ऐसा जानकर
भाव शुद्ध करना यह उपदेश है।। ९९।।
भावे सहित मुनिवर लहे आराधना चतुरंगने;
दस प्रकारका अब्रह्म ये है––––१ पहिले तो स्त्रीका चिन्तन होना, २ पीछे देखने की चिंता
होना, ३ पीछे निः श्वास डालना, ४ पीछे ज्वर होना, ५ पीछे दाह होना, ६ पीछे काम की
रुचि होना, ७ पीछे मूर्छा होना, ८ पीछे उन्माद होना, ९ पीछे जीनेका संदेह होना, १० पीके
मरण होना, ऐसे दस प्रकारका अब्रह्म है।
आगे कहते है कि–––जो भावसहित मुनि हैं सो आराधनाके चतुष्कको पाता है, भाव
बिना वह संसार में भ्रमण करता हैः–––
भावसहिदो य मुणिणो पावइ आराहणाच उक्कं च।
भाव रहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे।। ९९।।
भावसहितश्च मुनिनः प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च।
भावरहितश्च मुनिवर! भ्रमति चिरं दीर्घ संसारे।। ९९।।
अर्थः––हे मुनिवर! जो भाव सहित है सो दर्शन – ज्ञान –चारित्र –तप ऐसी
आराधनाके चतुष्कको पाता है, वह मुनियोंमें प्रधान है और जो भावरहित मुनि है सो बहुत
काल तक दीर्घसंसारमें भ्रमण करता है।
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भावे रहित तो हे श्रमण! चिर दीर्घसंसारे भमे। ९९।