Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 103-104 (Bhav Pahud).

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२२०] [अष्टपाहुड
कंदं मूलं बीवं पुप्फं पत्तादि किंचि सच्चित्तं।
असिऊण माणगव्वं भमिओ सि अणंतसंसारे।। १०३।।
कंदं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम्।
अशित्वा मानगर्वे भ्रमितः असि अनंत संसारे।। १०३।।
अर्थः––कंद – जमीकंद आदिक, बीज – चना आदि अन्नादिक, मूल – अदरक मूली
गाजर आदिक, पुष्प – फूल, पत्र नागरबेल आदिक, इनको आदि लेकर जो भी कोई सचित्त
वस्तु थी उसे मान
(गर्व) करके भक्षण की। उससे हे जीव! तूने अनंत–संसारमें भ्रमण किया।

भावार्थः––कन्दमूलादिक सचित्त अनन्त जीवोंकी काया है तथा अन्य वनस्पति बीजादिक
सचित्त हैं इनको भक्षण किया। प्रथम तो मान करके कि–––हम तपस्वी हैं, हमारे घरबार नहीं
है, वनके पुष्प – फलादिक खाकर तपस्या करते हैं,––ऐसे मिथ्यादृष्टि तपस्वी होकर मान
करके खाये तथा गर्व से उद्धत होकर दोष समझा नहीं, स्वच्छंद होकर सर्वभक्षी हुआ। ऐसे
इन कंदादिकको खाकर इस जीवने संसार भ्रमण किया। अब मुनि होकर इनका भक्षण मत
करे, ऐसा उपदेश है। अन्यमतके तपस्वी कंदमूलादिक फल – फूल खाकर अपनेको महंत
मानते हैं, उनका निषेध है।।१०३।।

आगे विनय आदिका उपदेश करते हैं, पहिले विनयका वर्णन हैः–––
विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति।। १०४।।
विनयः पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन।
अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवंति।। १०४।।
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कंई कंद–मूलो, पत्र–पुष्पो, बीज आदि सचित्तने
तुं मान–मदथी खाईने भटक्यो अनंत भवार्णवे। १०३।

रे! विनय पांच प्रकारनो तुं पाळ मन–वच–तन वडे;
नर होय जे अविनीत ते पामे न सुविहित मुक्तिने। १०४।