असिऊण माणगव्वं भमिओ सि अणंतसंसारे।। १०३।।
अशित्वा मानगर्वे भ्रमितः असि अनंत संसारे।। १०३।।
गाजर आदिक, पुष्प – फूल, पत्र नागरबेल आदिक, इनको आदि लेकर जो भी कोई सचित्त
वस्तु थी उसे मान
है, वनके पुष्प – फलादिक खाकर तपस्या करते हैं,––ऐसे मिथ्यादृष्टि तपस्वी होकर मान
करके खाये तथा गर्व से उद्धत होकर दोष समझा नहीं, स्वच्छंद होकर सर्वभक्षी हुआ। ऐसे
इन कंदादिकको खाकर इस जीवने संसार भ्रमण किया। अब मुनि होकर इनका भक्षण मत
करे, ऐसा उपदेश है। अन्यमतके तपस्वी कंदमूलादिक फल – फूल खाकर अपनेको महंत
मानते हैं, उनका निषेध है।।१०३।।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति।। १०४।।
अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवंति।। १०४।।
तुं मान–मदथी खाईने भटक्यो अनंत भवार्णवे। १०३।
रे! विनय पांच प्रकारनो तुं पाळ मन–वच–तन वडे;