भावपाहुड][२२१
जिनभक्तिरत दशभेद वैयावृत्त्यने आचर सदा। १०५।
अर्थः––हे मुने! जिस कारणसे अविनयी मनुष्य भले प्रकार विहित जो मुक्ति उसको
नहीं पाते हैं अर्थात् अभ्युदय तीर्थंकरादि सहित मुक्ति नहीं पाते हैं, इसलिये हम उपदेश करते
हैं कि––––हाथ जोड़ना, चरणोंमें गिरना, आने पर उठना, सामने जाना और अनुकूल वचन
कहना यह पाँच प्रकार का विनय है अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और इनके धारक पुरुष
इनका विनय करना, ऐसे पाँच प्रकारके विनयको तू मन – वचन –काय तीनों योगोंसे पालन
कर।
भावार्थः––विनय बिना मुक्ति नहीं है, इसलिये विनयका उपदेश है। विनयमें बड़े गुण
हैं, ज्ञानकी प्राप्ति होती है, मान कषायका नाश होता है, शिष्टाचारका पालन है और कलहका
निवारण है, इत्यादि विनय के गुण जानने। इसलिये जो सम्यग्दर्शन आदि में महान् है उनका
विनय करो यह उपदेश है और जो विनय बिना जिनमार्गसे भ्रष्ट भये, वस्त्रादिक सहित जो
मोक्षमार्ग मानने लगे उनका निषेध है।। १०४।।
आगे भक्तिरूप वैयावृत्यका उपदेश करते हैंः––––
णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि।
तं कुण जिण भत्ति परं विज्जावच्चं दसवियप्पं।। १०५।।
निजशक्त्या महायशः! भक्तिरागेण नित्यकाले।
त्वं कुरू जिन भक्ति परं वैयावृत्यं दशविकल्पम्।। १०५।।
अर्थः––हे महाशय! हे मुने! जिनभक्ति में तत्पर होकर, भक्तिके रागपूर्वक उस दस
भेदरूप वैयावृत्यको सदाकाल तु अपनी शक्तिके अनुसार कर। ‘वैयावृत्य’ के दूसरे दुःख
(कष्ट) आनेपर उसकी सेवा–चाकरी करनेको कहते हैं। इसके दस भेद हैं––१ आचार्य, २
उपाध्याय, ३ तपस्वी, ४ शैक्ष्य, ५ ग्लान, ६ गण, ७ कुल, ८ संघ, ९ साधु १० मनोज्ञ––––
ये दस मुनि के हैं। इनका वैयावृत्य करते हैं इसलिये दस भेद कहे हैं।। १०५।।
आगे अपने दोषका गुरुके पास कहना, ऐसी गर्हाका उपदेश करते हैंः–––
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तुं हे महायश! भक्तिराग वडे स्वशक्तिप्रमाणमां