२२२] [अष्टपाहुड
जं किंचिं कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेण।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण।। १०६।।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण।। १०६।।
यः कश्चित् कृतः दोषः मनोवचः कायैः अशुभ भावेन।
तं गर्हं गुरुसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा।। १०६।।
तं गर्हं गुरुसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा।। १०६।।
अर्थः––हे मुने! जो कुछ मन–वचन–कायके द्धारा अशुभ भावोंसे प्रतिज्ञा में लगा हो
उसको गुरुके पास अपना गौरव (महंतपनेका गर्व) छोड़कर और माया (कपट) छोड़कर
मन–वचन–कायको सरल करके गर्हा कर अर्थात् वचन द्धारा प्राकशित कर।
भावार्थः––अपने कोई दोष लगा हो और निष्कपट होकर गुरुको कहे तो वह दोष
भावार्थः––अपने कोई दोष लगा हो और निष्कपट होकर गुरुको कहे तो वह दोष
निवृत्त हो जावे। यदि आप शल्यवान रहे तो मुनिपदमें वह बड़ा दोष है, इसलिये अपना दोष
छिपाना नहीं, जैसा हो वैसा सरलबुद्धिसे गुरुओं के पास कहे तब दोष मिटे यह उपदेश है।
कालके निमित्तसे मुनिपद से भ्रष्ट भये, पीछे गुरुओंके पास प्रायश्चित नहीं लिया, तब विपरीत
होकर अलग सम्प्रदाय बना लिये, ऐसे विपर्यय हुआ।। १०६।।
आगे क्षमाका उपदेश करते हैंः––
छिपाना नहीं, जैसा हो वैसा सरलबुद्धिसे गुरुओं के पास कहे तब दोष मिटे यह उपदेश है।
कालके निमित्तसे मुनिपद से भ्रष्ट भये, पीछे गुरुओंके पास प्रायश्चित नहीं लिया, तब विपरीत
होकर अलग सम्प्रदाय बना लिये, ऐसे विपर्यय हुआ।। १०६।।
आगे क्षमाका उपदेश करते हैंः––
दुज्जवयणचडक्कं णिट्ठुरकडुयं सहंति सप्पुरिसा।
कम्ममलणासणट्ठं भावेण य णिम्ममा सवणा।। १०७।।
कम्ममलणासणट्ठं भावेण य णिम्ममा सवणा।। १०७।।
दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः।
कर्ममलनाशनार्थं भावेन च निर्ममाः श्रमणाः।। १०७।।
कर्ममलनाशनार्थं भावेन च निर्ममाः श्रमणाः।। १०७।।
अर्थः––सत्पुरुष मुनि हैं वे दुर्जनके वचनरूप चपेट जो निष्ठुर (कठोर) दयारहित और
कट्ठक (सुनते ही कानोंको कड़े शूल समान लगे) ऐसी चपेट हैं उसको सहते हैं। वे किसलिये
सहते हैं? कर्मोंका नाश होने के लिये सहते हैं। पहले अशुभ कर्म बाँधे थे उसके निमित्त से
दुर्जनने कटुक वचन कहे, आपने सुने, उसको उपशम
दुर्जनने कटुक वचन कहे, आपने सुने, उसको उपशम
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तें अशुभ भावे मन–वच–तनथी र्क्यो कंई दोष जे,
कर गर्हणा गुरुनी समीपे गर्व–माया छोडीने। १०६।
दुर्जन तणी निष्ठुर–कटुक वचनोरूपी थप्पड सहे
कर गर्हणा गुरुनी समीपे गर्व–माया छोडीने। १०६।
दुर्जन तणी निष्ठुर–कटुक वचनोरूपी थप्पड सहे
सत्पुरुष निर्ममभावयुत–मुनि कर्ममळलयहेतुए। १०७।