भावपाहुड][२२३
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नर–अमर–विद्याधर तणा स्तुतिपात्र छे निश्चितपणे। १०८।
परिणामसे आप सहे तब अशुभकर्म उदय होय खिर गये। ऐसे कटुकवचन सहने से कर्मका
नाश होता है।
वे मुनि सतपुरुष कैसे हैं? अपने भावसे वचनादिकसे निर्ममत्व हैं, वचनसे तथा
मानकषायसे और देहादिकसे ममत्व नहीं है। ममत्व दो तो दुर्वचन सहे न जावें, यह न जाने
कि इसने मुझे दुर्वचन कहे, इसलिये ममत्वके अभावसे दुर्वचन सहते हैं। अतः मुनि होकर
किसी पर क्रोध नहीं करना यह उपदेश है। लौकिक में भी जो बड़े पुरुष हैं वे दुर्वचन सुनकर
क्रोध नहीं करते हैं, तब मुनिको सहना उचित ही है। जो क्रोध करते हैं वे कहनेके तपस्वी हैं,
सच्चे तपस्वी नहीं हैं।। १०७।।
आगे क्षमाका फल कहते हैंः–––––
पावं खवइ असेसं खमाए पडिमंडिओ च मुणिपवरो।
खेवर अमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ।। १०८।।
पापं क्षिपति अशेषं क्षमया परिमंडित च मुनिप्रवरः।
खेचरामरनराणां प्रशंसनीयं ध्रुवं भवति।। १०८।।
अर्थः––जो मुनिप्रवर (मुनियोंमें श्रेष्ठ, प्रधान) क्रोधके अभावरूप क्षमासे मंडित हैं वह
मुनि समस्त पापोंका क्षय करता है और विद्याधर – देव – मनुष्यों द्वारा प्रशंसा करने योग्य
निश्चय से होता है।
भावार्थः––क्षमा गुण बड़ा प्रधान है, इससे सबके स्तुति करने योग्य पुरुष होता है। जो
मुनि है उनके उत्तम क्षमा होती है, वे तो सब मनुष्य – देव – विद्याधरोंके स्तुति योग्य होते
ही हैं और उनके सब पापोंका क्षय होता ही है, इसलिये क्षमा करना योग्य है–––ऐसा उपदेश
है। क्रोधी सबके निंदा करने योग्य होता है, इसलिये क्रोधका छोड़ना श्रेष्ठ है।। १०८।।
आगे ऐसे क्षमागुणको जानकर क्षमा करना और क्रोध छोड़ना ऐसा कहते हैः––––
मुनिप्रवर परिमंडित क्षमाथी पाप निःशेषे दहे,