भावपाहुड][२२९
इसप्रकार उदाहरण इसप्रकार है कि–––जब स्त्री आदि इन्द्रियगोचर हों (दिखाई दें) तब उनके विषयमें तत्त्वविचार करना कि यह स्त्री है वह क्या है? जीवनामक तत्त्वकी पयार्य है, इसका शरीर है वह तो पुद्गल तत्त्वकी पर्याय है, यह हावभाव चेष्टा करती है, वह इस जीव के विकार हुआ है यह आस्रवतत्त्व है और बाह्य चेष्टा पुद्गल की है, इस विकार से इस स्त्री की आत्मा के कर्म का बन्ध होता है। यह विकार इसके न हो तो ‘आस्रव’ ‘बन्ध’ न हों। कदाचित् मैं भी इसको देखकर विकाररूप परिणमन करूँ तो मेरे भी ‘आस्रव’ ‘बन्ध’ हों। इसलिये मुझे विकाररूप न होना यह ‘संवर’ तत्त्व है। बन सके तो कुछ उपदेश देकर इसका विकार दूर करूँ [ऐसा विकल्प राग है] वह राग भी करने योग्य नहीं है––––स्वसन्मुख ज्ञातापने में धैर्य रखना योग्य है। इसप्रकार तत्त्वकी भावना से अपना भाव अशुद्ध नहीं होता है, इसलिये जो दृष्टिगोचर पदार्थ हों उनमें इसप्रकार तत्त्वकी भावना रखना, यह तत्त्व की भावना का उपदेश है।।११४।। आगे कहते हैं कि ऐसे तत्त्वकी भावना जब तक नहीं है तब तक मोक्ष नहीं हैः–––
ताव ण पावइ जीवो श्ररमरणविवज्जियं ठाणं।। ११५।।
तावन्न प्राप्नोति जीवः जरामरणविवर्जितं स्थानम्।। ११५।।
का चिन्तन नहीं करता है तब तक जरा और मरणसे रहित मोक्षस्थानको नहीं पाता है।
भावार्थः––तत्त्वकी भावना तो पहिले कही वह चिन्तन करने योग्य धर्मशुक्ल– ध्यानका
परमेष्ठी का स्वरूप, उसका चिन्तन जब तक इस आत्माके न हो तब तक संसार से निवृत्त
होना नहीं है, इसलिये तत्त्वकी भावना और शुद्धस्वरूपके ध्यानका उपाय निरन्तर रखना यह
उपदेश है।। ११५।।