२३०] [अष्टपाहुड
आगे कहते है कि पाप–पुण्यका और बन्ध–मोक्षका कारण परिणाम ही हैः–––
पावं हवइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा।
परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो।। ११६।।
परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो।। ११६।।
पापं भवति अशेषं पुण्यमशेषं च भवति परिणामात्।
परिणामाद्बंधः मोक्षः जिनशासने द्रष्टः।। ११६।।
परिणामाद्बंधः मोक्षः जिनशासने द्रष्टः।। ११६।।
अर्थः––पाप–पुण्य, बंध–मोक्ष का कारण परिणाम ही को कहा है। जीवके मिथ्यात्व,
विषय–कषाय, अशुभलेश्यारूप तीव्र परिणाम होते हैं, उनसे तो पापास्रवका बंध होता है।
परमेष्ठी की भक्ति, जीवों पर दया इत्यादिक मंदकषाय शुभलेश्यारूप परिणाम होते हैं, इससे
पुण्यास्रवका बंध होता है। शुद्धपरिणामरहित विभावरूप परिणाम से बंध होता है। शुद्धभावके
सन्मुख रहना, उसके अनुकूल शुभ परिणाम रखना, अशुभ परिणाम सर्वथा दूर करना, यह
उपदेश है।। ११६।।
आगे पुण्य–पापका बंध जैसे भावोंसे होता है उनको कहते हैं। पहिले पाप–बंधके
परिणाम कहते हैंः––
मिच्छत्त तह कसायासंजमजोगेहिं असुहलेसेहिं।
बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो।। ११७।।
बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो।। ११७।।
मिथ्यात्वं तथा कषायासंयमयोगैः अशुभलेश्यैः।
बध्नति अशुभं कर्मं जिनवचनपराङ्मुखः जीवः।। ११७।।
बध्नति अशुभं कर्मं जिनवचनपराङ्मुखः जीवः।। ११७।।
अर्थः––मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योग जिनमें अशुभलेश्या पाई जाती है
इसप्रकारके भावोंसे यह जीव जिनवचनसे पराङमुख होता है––––अशुभकर्मको बाँधता है वह
पाप ही बाँधता है।
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रे! पाप सघळुं, पुण्य सघळुं, थाय छे परिणामथी;
परिणामथी छे बंध तेम ज मोक्ष जिनशासनमहीं। ११६।
मिथ्या–कषाय–अविरति–योग अशुभलेश्यान्वित वडे,
जिनवचपराङ्मुख आतमा बांधे अशुभरूप कर्मने। ११७।