भावपाहुड][२३१
भावार्थः––‘मिथ्यात्वभाव’ तत्त्वार्थ का श्रद्धान रहित परिणाम है। ‘कषाय’ क्रोधादिक हैं। ‘असंयम’ परद्रव्यके ग्रहणरूप है त्यागरूप भाव नहीं, इसप्रकार इन्द्रियोंके विषयोंसे प्रीति ओर जीवोंकी विराधना सहित भाव है। ‘योग’ मन–वचन–कायके निमित्त से आत्मप्रदेशों का चलना है। ये भाव जब तीव्र कषाय सहित कृष्ण, नील, कपोत अशुभ लेश्यारूप हों तब इस जीव के पापकर्म का बंध होता है। पापबंध करनेवाला जीव कैसा है? उसके जिनवचन की श्रद्धा नहीं है। इस विशेषण का आशय यह है कि अन्यमत के श्रद्धानी के जो कदाचित् शुभलेश्या के निमित्त से पुण्यका भी बंध हो तो उसको पाप ही में गिनते हैं। जो जिनआज्ञा में प्रवर्तता है उसके कदाचित् पाप भी बंधे तो वह पुण्य जीवों की ही पंक्ति में गिना जाता है, मिथ्यादृष्टिको पापी जीवों में माना है और सम्यग्दृष्टिको पुण्यवान् जीवोंमें माना जाता है। इसप्रकार पापबंधके कारण कहे।। ११७।।
दुविहपयारं बंधइ संखेपेणेव वज्जरियं।। ११८।।
द्विविधप्रकारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितम्।। ११८।।
अर्थः–– उस पूर्वोक्त जिनवचनका श्रद्धानी मिथ्यात्व रहित सम्यग्दृष्टि जीव शुभकर्मको
बाँधता है जिसने कि––––भावों में विशुद्धि प्राप्त है। ऐसे दोनों प्रकार के जीव शुभाशुभ कर्म
को बाँधते हैं, यह संक्षेप से जिनभगवान् ने कहा है।
भावार्थः––पहिले कहा था कि जिनवचनसे पराङमुख मिथ्यात्व सहित जीव है, उससे
है, क्योंकि इसके सम्यक्त्वके महात्म्यसे ऐसे उज्ज्वल भाव हैं जिनसे मिथ्यात्वके साथ बँधने
वाली पापप्रकृतियोंका अभाव है। कदाचित् किंचित् कोई पापप्रकृति बँधती है तो उसका अनुभाग
मंद होता है,