२३८] [अष्टपाहुड
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जिनने परमार्थ सुखका आस्वाद लिया उनको इन्द्रियसुख दुःख ही है ऐसा स्पष्ट भासित हुआ
है, अतः परमार्थ सुखका उपाय धर्म–शुक्लध्यान है उसको करके वे संसारका अभाव करते हैं,
इसलिये भावलिंगी होकर ध्यानका अभ्यास करना चाहिये।। १२२।।
आगे इस ही अर्थका दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैंः–––
जह दीवो गब्भहरे मारुयबाहाविवज्जिओ जलइ।
तह रायाणिलरहिओ झाणपईयो वि पज्जलइ।। १२३।।
यथा दीपः गर्भगृहे मारुतबाधाविवर्जितः ज्वलति।
तथा रागानिलरहितः ध्यानप्रदीपः अपि प्रज्वलति।। १२३।।
अर्थः––जैसे दीपक गर्भगृह अर्थात् जहाँ पवनका संचार नहीं है ऐसे मध्यके घरमें पवन
की बाधा रहित निश्चल होकर जलता है [प्रकाश करता है], वैसे ही अंतरंग मनमें रागरूपी
पवनसे रहित ध्यानरूपी दीपक भी जलता है, एकाग्र होकर ठहरता है, आत्मरूपको प्रकाशित
करता है।
भावार्थः––पहिले कहा था कि जो इन्द्रियसुखसे व्याकुल हैं उनके शुभध्यान नहीं होता
है, उसका यह दीपकका दृष्टांत है–– जहाँ इन्द्रियोंके सुख में जो राग वह ही हुआ पवन वह
विद्यमान है, उनके ध्यानरूपी दीपक कैसे निर्बाध उद्योत करे? अर्थात् न करे, और जिनके यह
रागरूपी पवन बाधा न करे उनके ध्यानरूपी दीपक निश्चल ठहरता है।। १२३।।
आगे कहते हैं कि–––ध्यानमें जो परमार्थ ध्येय शुद्ध आत्माका स्वरूप है उस स्वरूपके
आराधनमें नायक (प्रधान) पंच परमेष्ठी हैं, उनका ध्यान करनेका उपदेश करते हैंः–––
झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए।
णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे।। १२४।।
ज्यम गर्भगृहमां पवननी बाधा रहित दीपक जळे,
ते रीत रागानिलविवर्जित ध्यानदीपक पण जळे। १२३।