नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वीरान्।। १२४।।
अर्थः–––हे मुने! तू पंच गुरु अर्थात् पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर। यहाँ ‘अपि’ शब्द
शुद्धात्म सवरूपके ध्यानको सूचित करता है। पंच परमेष्ठी कैसे हैं? मंगल अर्थात् पाप के
नाशक अथवा सुखदायक और चउशरण अर्थात् चार शरण तथा ‘लोक’ अर्थात् लोक के
प्राणियों से अरहंत, सिद्ध, साधु, केवलीप्रणीत धर्म, ये परिकरित अर्थात् परिवारित हैं––––
युक्त
प्राप्त हैं तथा देते हैं। इसप्रकार पंच परम गुरुका ध्यान कर।
कहे हैं। इनके सिवाय प्राणीको अन्य शरण या रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं है और लोक में
उत्तम भी ये ही हैं। आराधना दर्शन – ज्ञान – चारित्र – तप ये चार हैं, इनके नायक
[स्वामी] भी ये ही हैं, कर्मोंको जीतनेवाले भी ये ही हैं । इसलिये ध्यान करनेवाले के लिये
इनका ध्यान श्रेष्ठ है। शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति इनही के ध्यान से होती है, इसलिये यह उपदेश
है।। १२४।।
वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति।। १२५।।
व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवाः भवन्ति।। १२५।।