२४०] [अष्टपाहुड
अर्थः––भव्य जीव ज्ञानमयी निर्मल शीतल जलको समयक्त्वभाव सहित पीकर और व्याधिस्वरूप जरा–मरणकी वेदना [पीड़ा] को भस्म करके मुक्त अर्थात् संसार से रहित ‘शिव’ अर्थात् परमनंद सुखरूप होते हैं। भावार्थः–––जैसे निर्मल और शीतल जलके पीने से पित्तकी दाहरूप व्याधि मिटकर साता होती है, वैसे ही यह ज्ञान है वह जब यह रागादिक मलसे रहित निर्मल और आकुलता रहित शांतभावरूप होता है, उसकी भावना कर रुचि, श्रद्धा, प्रतीति से पीवे, इससे तनमय हो तो जरा – मरणरूप दाह – वेदना मिट जाती है और संसार से निर्वृत्त होकर सुखरूप होता है, इसलिये भव्य जीवोंको यह उपदेश है कि ज्ञानमें लीन होओ।। १२४।।
आगे कहते हैं कि इस ध्यानरूप अग्नि में संसार के बीज आठों कर्म एक बार दग्ध हो जाने पर पीछे फिर संसार नहीं होता है, यह बीज भावमुनिके दग्ध हो जाता हैः–––
तह कम्मबीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं।। १२६।।
तथा कर्म बीजदग्धे भवांकुरः भावश्रमणानाम्।। १२६।।
अर्थः––जैसे पृथ्वीतल पर बीज के जल जाने पर उसका अंकुर फिर नहीं उगता है,
नहीं होता है।
भावार्थः––संसारके बीज ‘ज्ञानावरणादि’ कर्म हैं। ये कर्म भावश्रमण के ध्यानरूप
होकर धर्म – शुक्लध्यान से कर्मोंका नाश करना योग्य है, यह उपदेश है। कोई सर्वथा एकांती
अन्यथा कहे कि–––कर्म अनादि हैं, उसका अंत भी नहीं है, उसका भी यह निषेध है।