भावपाहुड][२४१ बीज अनादि है वह एकबार दग्ध हो जाने पर फिर पीछे फिर नहीं उगता है, उसी तरह इसे जानना।। १२६।।
आगे संक्षेप से उपदेश करते हैंः––––
भावसवणो वि पावइ सुक्खाइं दुहाइं दव्वसवणो य।
इय णाउं गुणदोसे भावेण संजुदो होइ।। १२७।।
इय णाउं गुणदोसे भावेण संजुदो होइ।। १२७।।
भावश्रमणः अपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि द्रव्यश्रमणश्च।
इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव।। १२७।।
इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव।। १२७।।
अर्थः––भावश्रमण तो सुखोंको पाता है और द्रव्यश्रमण दुःखोंको पाता है, इस प्रकार
गुण – दोषोंको जानकर हे जीव! तू भावसहित संयमी बन।
भावार्थः––सम्यग्दर्शन सहित भावश्रमण होता है, वह संसारका अभाव करके सुखोंको पाता है और मिथ्यात्वसहित द्रव्यश्रमण भेषमात्र होता है, वह संसार का अभाव नहीं कर सकता है, इसलिये दुःखोंको पाता है। अतः उपदेश करते हैं कि दोनों के गुण – दोष जानकर भावसहयमी होना योग्य है, यह सब उपदेशका सार है।। १२७।।
आगे फिर भी इसी का उपदेश अर्थरूप संक्षेप से कहते हैंः–––
तित्थयरगणहराइं अब्भुदयपरंपराइं सोक्खाइं।
पावंति भावसहिया संखेवि जिणेहिं वज्जरियं।। १२८।।
तीर्थंकरगणधरादीनि अभ्युदयपरंपराणि सौख्यानि।
प्राप्नुवंति भावश्रमणाः संक्षेपेण जिनैः भणितम्।। १२८।।
प्राप्नुवंति भावश्रमणाः संक्षेपेण जिनैः भणितम्।। १२८।।
अर्थः––जो भाव सहित मुनि हैं वे अभ्युदयसहित तीर्थंकर – गणधर आदि पदवी के
सुखोंको पाते हैं, यह संक्षेप से कहा है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! भावश्रमण सुखो लहे ने द्रव्यमुनि दुःखो लहे;
तुं भावथी संयुक्त था, गुणदोष जाणी ए रीते। १२७।
तुं भावथी संयुक्त था, गुणदोष जाणी ए रीते। १२७।
तीर्थेश–गणनाथादिगत अभ्युदययुत सौख्यो तणी,
प्राप्ति करे छे भावमुनि;–भाख्युं जिने संक्षेपथी। १२८।