भावपाहुड][२४३
आगे इसहीका समर्थन है कि ऐसी ऋद्धि भी नहीं चाहता है तो अन्य सांसारिक सुख
की क्या कथा?–
मुनिप्रवर जे जाणे, जुए ने चिंतवे छे मोक्षने? १३१।
ऋद्धिमतुलां १विकुर्वभ्दिः किंनरकिंपुरुषामरखचरैः।
तैरपि न याति मोहं जिनभावना भावितः धीरः।। १३०।।
अर्थः–––जिनभावना [सम्यक्त्व भावना] से वासित जीव किंनर, किंपरुष देव;
कल्पवासी देव और विद्याधर, इनसे विक्रियारूप विस्तार की गई अतुल–ऋद्धियोंसे मोहको
प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि सम्यदृष्टि जीव कैसा है? धीर है, दृढ़बुद्धि है अर्थात् निःशंकित
अंग का धारक है।
भावार्थः––जिसके जिनसम्यक्त्व दृढ़ है उसके संसारकी ऋद्धि तृणवत् है, परमार्थ सुख
की ही भावना है, विनाशीक ऋद्धिकी वांछा क्यों हो? ।। १३०।।
किं पुण गच्छइ मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं।
जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो।। १३१।।
किं पुनः गच्छति मोहं नरुरसुखानां अल्पसाराणाम्।
जानन् पश्यन् चिंतयन् मोक्षं मुनिधवलः।। १३१।।
अर्थः––सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोक्त प्रकारकी भी ऋद्धि को नहीं चाहता है तो मुनिधवल
अर्थात् मुनिप्रधान है वह अन्य जो मनुष्य देवोंके सुख – भोगादिक जिनमें अल्प सार है उनमें
क्या मोहको प्राप्त हो? कैसा है मुनिधवल? मोक्ष को जानता है, उसही की तरफ दृष्टि है,
उसही का चिन्तन करता है।
भावार्थः––जो मुनिप्रधान हैं उनकी भावना मोक्षके सुखोंमें है। वे बड़ी बड़ी देव
विद्याधरोंकी फैलाई हुई विक्रियाऋद्धिमें भी लालसा नहीं करते हैं तो किंचित्मात्र विनाशीक जो
मनुष्य, देवोंके भोगादिकका सुख उनमें वांछा कैसे करे? अर्थात् नहीं करे।। १३१।।
आगे उपदेश करते हैं कि जबतक जरा आदिक न आवे तबतक अपना हित कर लोः––
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१ –––संस्कृत मुद्रित प्रतिमें ‘विकृतां’ पाठ है।
तो देव–नरनां तुच्छ सुख प्रत्ये लहे शुं मोहने,